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बोधपाहुड
निर्मित है, कर्म से निर्मुक्त होने के बाद एक समयमात्र गमनरूप होते हैं, इसलिए जंगमरूप से निर्मापित है; सिद्धस्थान जो लोक का अग्रभाग उसमें स्थित हैं; इसीलिए व्युत्सर्ग अर्थात् कायरहित है, जैसा पूर्व शरीर में आकार था वैसा ही प्रदेशों का आकार चरम शरीर से कुछ कम है; ध्रुव है, संसार से मुक्त हो ( उसी समय एकसमयमात्र गमन कर लोक के अग्रभाग में जाकर स्थित हो जाते हैं, फिर चलाचल नहीं होते हैं- ऐसी प्रतिमा 'सिद्धभगवान' है।
भावार्थ – पहिले दो गाथाओं में तो जंगम प्रतिमा संयमी मुनियों की देहसहित कही । इन गाथाओं में 'थिरप्रतिमा' सिद्धों की कही, इसप्रकार जंगम थावर प्रतिमा का स्वरूप कहा । अन्य
अन्यथा बहुत प्रकार से कल्पना करते हैं, वह प्रतिमा वंदन करने योग्य नहीं है।
यहाँ प्रश्न यह तो परमार्थस्वरूप कहा और बाह्य व्यवहार में पाषाणादिक की प्रतिमा की वंदना करते हैं, वह कैसे ? इसका समाधान - जो बाह्य व्यवहार में मतान्तर के भेद से अनेक रीति प्रतिमा की प्रवृत्ति है, यहाँ परमार्थ को प्रधान कर कहा है और व्यवहार है वहाँ जैसा प्रतिमा का परमार्थरूप हो उसी को सूचित करता हो वह निर्बाध है । जैसा परमार्थरूप आकार कहा वैसा ही आकाररूप व्यवहार हो वह व्यवहार भी प्रशस्त है; व्यवहारी जीवों के यह भी वंदन करने योग्य है । स्याद्वाद न्याय से सिद्ध किये गये परमार्थ और व्यवहार में विरोध नहीं है । । १२-१३ ।।
इसप्रकार जिनप्रतिमा का स्वरूप कहा ।
(४) आगे दर्शन का स्वरूप कहते हैं
दंसेइ मोक्खमग्गं सम्मत्तं संजमं सुधम्मं च। णिग्गंथं णाणमयं जिणमग्गे दंसणं भणियं ।। १४ । ।
दर्शयति मोक्षमार्गं सम्यक्त्वं संयमं सुधर्मं च ।
निर्ग्रन्थं ज्ञानमयं जिनमार्गे दर्शनं भणितम् । । १४ ।।
अर्थ - जो मोक्षमार्ग को दिखाता है वह 'दर्शन' है, मोक्षमार्ग कैसा है ? सम्यक्त्व अर्थात् तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षण सम्यक्त्वस्वरूप है, संयम अर्थात् चारित्र - पंच महाव्रत, पंच समिति, तीन गुप्ति - ऐसे तेरह प्रकार चारित्ररूप है, सुधर्म अर्थात् उत्तमक्षमादिक दशलक्षण धर्मरूप है, निर्ग्रन्थरूप है, बाह्य अभ्यंतर परिग्रह रहित है, ज्ञानमयी है, जीव अजीवादि पदार्थों को जाननेवाला है। यहाँ ‘निर्ग्रन्थ' और 'ज्ञानमयी' ये दो विशेषण दर्शन के भी होते हैं, क्योंकि दर्शन है सो बाह्य तो इसकी सम्यक्त्व संयम धर्ममय शिवमग बतावनहार जो ।
वे ज्ञानमय निर्ग्रन्थ ही दर्शन कहे जिनमार्ग में ।। १४ ।।