Book Title: Ashtapahud
Author(s): Kundkundacharya, 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 318
________________ २८० अष्टपाहुड आगे कहते हैं कि ऐसे समभाव से चारित्र होता है - जिंदाए य पसंसाए दुक्खे य सुहएसु य। सत्तूणं चेव बंधूणं चारित्तं समभावदो ।।७२।। निंदायां य प्रशंसायां दु:खे च सुखेषु च। शत्रूणां चैव बंधूनां चारित्रं समभावतः ।।७२।। अर्थ - निन्दा-प्रशंसा में, दुःख-सुख में और शत्रु-बन्धु-मित्र में समभाव जो समतापरिणाम, रागद्वेष से रहितपना ऐसे भाव से चारित्र होता है। भावार्थ – चारित्र का स्वरूप यह कहा है कि जो आत्मा का स्वभाव है वह कर्म के निमित्त से ज्ञान में परद्रव्य से इष्ट-अनिष्ट बुद्धि होती है, इस इष्ट-अनिष्ट बुद्धि के अभाव से ज्ञान ही में उपयोग लगा रहे उसको शुद्धोपयोग कहते हैं वही चारित्र है, यह होता है वहाँ निंदा-प्रशंसा, सुख-दुःख, शत्रु-मित्र में समान बुद्धि होती है, निंदा-प्रशंसा का द्विधाभाव मोहकर्म का उदयजन्य है, इसका अभाव ही शुद्धोपयोगरूप चारित्र है ।।७२।। आगे कहते हैं कि कई मूर्ख ऐसे कहते हैं जो अभी पंचमकाल है सो आत्मध्यान का काल नहीं है, उसका निषेध करते हैं - चरियावरिया वदसमिदिवजिया सुद्धभावपब्भट्ठा। केई जंपति णरा ण हु कालो झाणजोयस्स ।।७३।। चर्यावृत्ता: व्रतसमितिवर्जिताः शुद्धभावप्रभ्रष्टाः। केचित् जल्पंति नरा: न स्फुटं काल: ध्यानयोगस्य ।।७३।। अर्थ – कई मनुष्य ऐसे हैं जिनके चर्या अर्थात् आचारक्रिया आवृत्त है, चारित्रमोह का उदय प्रबल है, इससे चर्या प्रकट नहीं होती है इसी से व्रतसमिति से रहित हैं और मिथ्या अभिप्राय के कारण शुद्धभाव से अत्यंत भ्रष्ट हैं, वे ऐसे कहते हैं कि अभी पंचमकाल है, यह काल प्रकट ध्यान योग का नहीं है ।।७३।। जिनके नहीं व्रत-समिति चर्या भ्रष्ट हैं शुधभाव से। वे कहें कि इस काल में निज ध्यान योग नहीं बने ।।७३।। जो शिवविमुख नर भोग में रत ज्ञानदर्शन रहित हैं। वे कहें कि इस काल में निज ध्यान-योग नहीं बने।।७४।।

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