Book Title: Ashtapahud
Author(s): Kundkundacharya, 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 380
________________ ३४२ अष्टपाहुड हैं, यहाँ भी शील ही की महिमा जानना और वृक्ष का स्वरूप कहा, जैसे वृक्ष के शाखा, पत्र, पुष्प, फल सुन्दर हों और छायादि करके रागद्वेष रहित सब लोक का समान उपकार करे उस वृक्ष की महिमा सब लोग करते हैं ऐसे ही मुनि भी ऐसा हो तो सबके द्वारा महिमा करने योग्य होता है ।।३६।। आगे कहते हैं कि जो ऐसा हो वह जिनमार्ग में रत्नत्रय की प्राप्तिरूप बोधि को प्राप्त होता है - णाणं झाणं जोगो दंसणसुद्धीय 'वीरियायत्तं । सम्मत्तदंसणेण य लहंति जिणसासणे बोहिं ।।३७।। ज्ञानं ध्यानं योग: दर्शनशुद्धिश्च वीर्यायत्ताः। सम्यक्त्वदर्शनेन च लभन्ते जिनशासने बोधिं ।।३७।। अर्थ – ज्ञान, ध्यान, योग और दर्शन की शुद्धता – ये तो वीर्य के आधीन हैं और सम्यग्दर्शन से जिनशासन में बोधि को प्राप्त करते हैं, रत्नत्रय की प्राप्ति होती है। भावार्थ - ज्ञान अर्थात् पदार्थों को विशेषरूप से जानना, ध्यान अर्थात् स्वरूप में एकाग्रचित्त होना, योग अर्थात् समाधि लगाना, सम्यग्दर्शन को निरतिचार शुद्ध करना - ये तो अपने वीर्य (शक्ति) के आधीन है, जितना बने उतना हो, परन्तु सम्यग्दर्शन से बोधि अर्थात् रत्नत्रय की प्राप्ति होती है, इसके होने पर विशेष ध्यानादिक भी यथाशक्ति होते ही हैं और इससे शक्ति भी बढ़ती है। ऐसे कहने में भी शील ही का माहात्म्य जानना, रत्नत्रय है वही आत्मा का स्वभाव है, उसको शील भी कहते हैं ।।३७।। आगे कहते हैं कि यह प्राप्ति जिनवचन से होती है - जिणवयणगहिदसारा विसयविरत्ता तवोधणा धीरा। सीलसलिलेण प्रहादा ते सिद्धालयसुहं जंति ।।३८।। जिनवचनगृहीतसारा विषयविरक्ता: तपोधना धीराः। १. मुद्रित सं. प्रति में 'वीरियावत्तं' ऐसा पाठ है जिसकी छाया 'वीर्यत्वं' है। ज्ञानध्यानरु योगदर्शन शक्ति के अनुसार हैं। पर रत्नत्रय की प्राप्ति तो सम्यक्त्व से ही जानना ।।३७।। जो शील से सम्पन्न विषय विरक्त एवं धीर हैं। वे जिनवचन के सारग्राही सिद्ध सुख को प्राप्त हो ।।३८।।

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