Book Title: Ashtapahud
Author(s): Kundkundacharya, 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 381
________________ शीलपाहुड शीलसलिलेन स्नाताः ते सिद्धालयसुखं यांति ।। ३८ ।। अर्थ - जिनने जिनवचनों से सार को ग्रहण कर लिया है और विषयों से विरक्त हो गये हैं, जिनके तप ही धन है तथा धीर हैं ऐसे होकर मुनि शीलरूप जल से स्नानकर शुद्ध हुए वे सिद्धालय, जो सिद्धों के रहने का स्थान उसके सुखों प्राप्त होते हैं। भावार्थ - जो जिनवचन के द्वारा वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानकर उसका सार जो अपने शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति का ग्रहण करते हैं वे इन्द्रियों के विषयों से विरक्त होकर तप अंगीकार करते हैं-मुनि होते हैं धीर वीर बनकर परिषह उपसर्ग आने पर भी चलायमान नहीं होते हैं तब शील जो स्वरूप की प्राप्ति की पूर्णतारूप चौरासी लाख उत्तरगुण की पूर्णता वही हुआ निर्मल जल, उससे स्नान करके सब कर्ममल को धोकर सिद्ध हुए, वह मोक्षमंदिर में रहकर वहाँ परमानन्द अविनाशी अतीन्द्रिय अव्याबाध सुख को भोगते हैं, यह शील का माहात्म्य ऐसा शील जिनवचन से प्राप्त होता है, जिनागम का निरन्तर अभ्यास करना उत्तम है ।। ३८ ।। आगे अंतसमय में सल्लेखना कही है, उसमें दर्शन ज्ञान चारित्र तप इन चार आराधना का उपदेश है ये भी शील ही से प्रगट होते हैं, उसको प्रगट करके कहते हैं. - सव्वगुणखीणकम्मा सुहदुक्खविवज्जिदा मणविसुद्धा । पप्फोडियकम्मरया हवंति आराहणापयडा ।। ३९ ।। सर्वगुणक्षीणकर्माणः सुखदुःखविवर्जिताः मनोविशुद्धाः । प्रस्फोटितकर्मरजसः भवंति आराधनाप्रकटाः ।। ३९ ।। ३४३ अर्थ - सर्वगुण जो मूलगुण उत्तरगुणों से जिसमें कर्म क्षीण हो गये हैं, सुख-दुःख से रहित हैं, जिसमें मन विशुद्ध है और जिसमें कर्मरूप रज को उड़ा दी है ऐसी आराधना प्रगट होती है। - भावार्थ – पहिले तो सम्यग्दर्शन सहित मूलगुण व उत्तरगुणों के द्वारा कर्मों की निर्जरा होने से कर्म की स्थिति अनुभाग क्षीण होता है, पीछे विषयों के द्वारा कुछ सुख दुःख होता था उससे रहित होता है, पीछे ध्यान में स्थित होकर श्रेणी चढ़े तब उपयोग विशुद्ध हो, कषायों का उदय अव्यक्त हो, तब दुःख-सुख की वेदना मिटे, पीछे मन विशुद्ध होकर क्षयोपशम ज्ञान के द्वारा कुछ ज्ञेय से ज्ञेयान्तर होने का विकल्प होता है वह मिटकर एकत्ववितर्क अविचार नाम का शुक्लध्यान सुख-दुख विवर्जित शुद्धमन अर कर्मरज से रहित जो । वह क्षीणकर्मा गुणमयी प्रकटित हुई आराधना ।। ३९ ।।

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