Book Title: Ashtapahud
Author(s): Kundkundacharya, 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 383
________________ ३४५ शीलपाहुड यह प्राप्त किया जाता है उसकी भक्ति हो तब जानें कि इसके श्रद्धा हुई और जब सम्यक्त्व हो तब विषयों से विरक्त होय ही हो, यदि विरक्त न हो तो संसार और मोक्ष का स्वरूप क्या जाना ? इसप्रकार सम्यक्त्व शील होने पर ज्ञान सम्यक्ज्ञान नाम पाता है। इसप्रकार इस सम्यक्त्व शील के संबंध से ज्ञान की तथा शास्त्र की महिमा है। ऐसे यह जिनागम है सो संसार से निवृत्ति करके मोक्ष प्राप्त करानेवाला है, यह जयवंत हो। यह सम्यक्त्व सहित ज्ञान की महिमा है वही अंतमंगल जानना ।।४।। इसप्रकार श्रीकन्दकन्द आचार्यकृत शीलपाहड ग्रंथ समाप्त हआ। इसका संक्षेप तो कहते आये कि शील नाम स्वभाव का है। आत्मा का स्वभाव शुद्ध ज्ञान दर्शनमयी चेतना स्वरूप है वह अनादि कर्म के संयोग से विभावरूप परिणमता है। इसके विशेष मिथ्यात्व कषाय आदि अनेक हैं, इनको रागद्वेषमोह भी कहते हैं, इनके भेद संक्षेप से चौरासी लाख किये हैं, विस्तार से असंख्यात अनन्त होते हैं, इनको कुशील कहते हैं। इनके अभावरूप संक्षेप से चौरासी लाख उत्तरगण हैं, इन्हें शील कहते हैं, यह तो सामान्य परद्रव्य के संबंध की अपेक्षा शील-कुशील का अर्थ है और प्रसिद्ध व्यवहार की अपेक्षा स्त्री के संग की अपेक्षा कुशील के अठारह हजार भेद कहे हैं, इनका अभाव शील के अठारह हजार भेद हैं, इनको जिनागम से जानकर पालना । लोक में भी शील की महिमा प्रसिद्ध है, जो पालते हैं, वे स्वर्गमोक्ष के सुख पाते हैं उनको हमारा नमस्कार है वे हमें भी शील की प्राप्ति करावें, यह प्रार्थना है। (छप्पय ) आन वस्तु के संग राचि जिनभाव भंग करि । वरतै ताहि कुशीलभाव भाखे कुरंग धरि ।। ताहि त● मुनिराय पाय निज शुद्धरूप जल। धोय कर्मरज होय सिद्ध पावै सुख अविचल ।। यह निश्चय शील सुब्रह्ममय व्यवहारै तिय तज नमै। जो पालै सबविधि तिनि नमूं पाऊँ जिन भव न जनम मैं ।।१।। (दोहा) नमूं पंचपद ब्रह्ममय मंगलरूप अनूप। उत्तम शरण सदा लहूं फिरि न परूं भवकूप ॥२॥ इति श्रीकुन्दकुन्दाचार्यस्वामि प्रणीत शीलप्राभृत की जयपुर निवासी पण्डित जयचन्द्र छाबड़ा कृत देशभाषामय वचनिका का हिन्दी भाषानुवाद समाप्त ।।८।।

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