Book Title: Ashtapahud
Author(s): Kundkundacharya, 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 330
________________ २९२ अष्टपाहुड लजाभयगारवत: मिथ्यादृष्टिः भवेत् सः स फ ट म ।। ९ २ । । अर्थ – जो क्षुधादिक और रागद्वेषादिक दोषों से दूषित हो वह कुत्सित देव है, जो हिंसादि दोषों से सहित हो वह कुत्सित धर्म है, जो परिग्रहादि सहित हो वह कुत्सितलिंग है। जो इनकी वंदना करता है, पूजा करता है, वह तो प्रगट मिथ्यादृष्टि है। यहाँ अब विशेष कहते हैं कि जो इनको भले-हित करनेवाले मानकर वंदना करता है, पूजा करता है वह तो प्रगट मिथ्यादष्टि है. परन्त जो लज्जा भय गारव इन कारणों से भी वंदना करता है पूजा करता है वह भी प्रगट मिथ्यादृष्टि है। लज्जा तो ऐसे कि लोग इनकी वन्दना करते हैं, पूजा करते हैं, हम नहीं पूजेंगे तो लोग हमको क्या कहेंगे ? हमारी इस लोक में प्रतिष्ठा चली जायेगी इसप्रकार लज्जा से वंदना व पूजा करे । भय ऐसे कि इनको राजादिक मानते हैं, हम नहीं मानेंगे तो हमारे ऊपर कुछ उपद्रव आ जायेगा, इसप्रकार भय से वंदना व पूजा करे । गारव ऐसे कि हम बड़े हैं, महंत पुरुष हैं, सब ही का सन्मान करते हैं, इन कार्यों से हमारी बड़ाई है, इसप्रकार गारव से वंदना व पूजना होता है। इसप्रकार मिथ्यादृष्टि के चिह्न कहे ।।९२।। आगे इसी अर्थ को दृढ़ करते हुए कहते हैं कि - सपरावेक्खं लिंगं राई देवं असंजयं वंदे। मण्णइ मिच्छादिट्ठी ण हु मण्णइ सुद्धसम्मत्तो ।।९३।। स्वपरापेक्षं लिंगं रागिणं देवं असंयतं वन्दे । मानयति मिथ्यादृष्टिः न स्फुटं मानयति शुद्धसम्यक्ती ।।९३।। अर्थ – स्वपरापेक्ष तो लिंग आप कुछ लौकिक प्रयोजन मन में धारण कर भेष ले वह स्वापेक्ष है और किसी पर की अपेक्षा से धारण करे, किसी के आग्रह तथा राजादिक के भय से धारण करे वह परापेक्ष है। रागी देव (जिसके स्त्री आदि का राग पाया जाता है) और संयमरहित को इसप्रकार कहे कि मैं वंदना करता हूँ तथा इनको माने, श्रद्धान करे वह मिथ्यादृष्टि है। शुद्ध सम्यक्त्व होने पर न इनको मानता है, न श्रद्धान करता है और न वंदना व पूजन ही करता है। अरे रागी देवता अर स्वपरपेक्षा लिंगधर । व असंयत की वंदना न करें सम्यग्दृष्टिजन ।।९३।। जिनदेव देशित धर्म की श्रद्धा करें सदृष्टिजन । विपरीतता धारण करें बस सभी मिथ्यादृष्टिजन ।।१४।।

Loading...

Page Navigation
1 ... 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394