Book Title: Ashtapahud
Author(s): Kundkundacharya, 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 352
________________ ३१४ अष्टपाहुड प्रवृत्ति करें तब कैसे श्रमण हुए ? वे जिनमार्गी तो हैं नहीं, कलिकाल के भेषी हैं। इनको साधु मानते हैं वे भी अज्ञानी हैं ।। १३ ।। आगे फिर कहते हैं - गिण्हदि अदत्तदाणं परणिंदा वि य परोक्खदूसेहिं । जिणलिंगं धारंतो चोरेण व होइ सो समणो ।। १४ । । गृह्णाति अदत्तदानं परनिंदामपि च परोक्षदूषणैः । जिनलिंग धारयन् चौरेणेव भवति सः श्रमण: ।। १४ । । अर्थ - जो बिना दिया तो दान लेता है और परोक्ष पर के दूषणों से पर की निंदा करता है वह जिनलिंग को धारण करता हुआ भी चोर के समान श्रमण है। भावार्थ – जो जिनलिंग धारण करके बिना दिये आहार आदि को ग्रहण करता है, पर के देने की इच्छा नहीं है, परन्तु कुछ भयादिक उत्पन्न करके लेना तथा निरादर से लेना, छिपकर कार्य करना - ये तो चोर के कार्य हैं। यह भेष धारण करके ऐसे करने लगा तब चोर ही ठहरा इसलिए ऐसा भेषी होना योग्य नहीं है ।। १४ ।। आगे कहते हैं कि जो लिंग धारण करके ऐसे प्रवर्तते हैं, वे श्रमण नहीं हैं उप्पडद पडदि धावदि पुढवीओ खणदि ल ग रू व ण I इरियावहं धारंतो तिरिक्खजोणी ण सो समणो ।। १५ ।। उत्पतति पतति धावति पृथिवीं खनति लिंगरूपेण । ईर्यापथं धारयन् तिर्यग्योनिः न सः श्रमणः ।। १५ ।। अर्थ - जो लिंग धारण करके ईर्यापथ सोधकर चलना था उसमें सोधकर नहीं चले, दौड़कर चलता हुआ उछले, गिर पड़े, फिर उठकर दौड़े और पृथ्वी को खोदे, चलते हुए ऐसे पैर पटके जो उससे पृथ्वी खुद जाय इसप्रकार से चले सो तिर्यंचयोनि है, पशु है, अज्ञानी है, मनुष्य नहीं बिना दीये ग्रहें परनिन्दा करें जो परोक्ष में । वे धरें यद्यपि लिंगजिन फिर भी अरे वे चोर हैं ।।१४।। ईर्या समिति की जगह पृथ्वी खोदते दौड़ें गिरें । रे पशूवत उठकर चलें वे श्रमण नहिं तिर्यंच हैं ।। १५ ।।

Loading...

Page Navigation
1 ... 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394