Book Title: Ashtapahud
Author(s): Kundkundacharya, 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 357
________________ ३१९ लिंगपाहुड फिर संसार में अनन्तकाल भ्रमण होगा और यत्नपूर्वक मुनित्व का पालन करेगा तो शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त करेगा, इसलिए जिसको मोक्ष चाहिए वह मुनिधर्म को प्राप्त करके यत्नसहित पालन करो, परीषह का, उपसर्ग का उपद्रव आवे तो भी चलायमान मत होओ, यह श्री सर्वज्ञदेव का उपदेश है ।।२२।। इसप्रकार यह लिंगपाहुड़ ग्रंथ पूर्ण किया। इसका संक्षेप इसप्रकार है कि इस पंचमकाल में जिनलिंग धारण करके फिर दुर्भिक्ष के निमित्त से भ्रष्ट हुए, भेष बिगाड़ दिया वे अर्द्धफालक कहलाये, इनमें से फिर श्वेताम्बर हुए, इनमें से भी यापनीय हुए, इत्यादि होकर के शिथिलाचार को पुष्ट करने के शास्त्र रचकर स्वच्छंद हो गये, इनमें से कितने ही निपट-बिल्कुल निंद्य प्रवृत्ति करने लगे, इनका निषेध करने के लिए तथा सबको सत्य उपदेश देने के लिए यह ग्रंथ है, इसको समझकर श्रद्धान करना। इसप्रकार निंद्य आचरणवालों को साधु-मोक्षमार्गी न मानना, इनकी वदना व पूजा न करना - यह उपदेश है। (छप्पय ) लिंग मुनी को धारि पाप जो भाव बिगाड़े। वह निंदाकू पाय आपको अहित विथारै ।। ताकू पूजै थुवै वंदना करै जु कोई। वे भी तैसे होइ साथि दुरगतिकू लेई ।। इससे जे सांचे मुनि भये भाव शुद्धि में थिर रहे। तिनि उपदेश्या मारग लगे ते सांचे ज्ञानी कहे ।।१।। (दोहा ) अंतर बाह्य जु शुद्ध जे जिनमुद्राकू धारि । भये सिद्ध आनंदमय वंदूं जोग सँवारि ।।२।। इति श्रीकुन्दकुन्दस्वामि विरचित श्री लिंगप्राभृत शास्त्र की जयपुर निवासी पण्डित जयचन्द्रजी छाबड़ाकृत देशभाषामयवचनिका का हिन्दी भाषानुवाद समाप्त ।।७।। ००

Loading...

Page Navigation
1 ... 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394