Book Title: Ashtapahud
Author(s): Kundkundacharya, 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 359
________________ शीलपाहुड ३२१ आत्मा का भाव, उत्पल अर्थात् दूर करने में कोमल अर्थात् कठोरतादि दोष रहित और सम अर्थात् रागद्वेष रहित, पाद अर्थात् जिनके वाणी के पद हैं, जिनके वचन कोमल हितमित मधुर राग द्वेषरहित प्रवर्तते हैं, उनसे सबका कल्याण होता है। भावार्थ – इसप्रकार वर्द्धमान स्वामी को नमस्काररूप मंगल करके आचार्य ने शीलपाहुड ग्रन्थ करने की प्रतिज्ञा की है।।१।। आगे शील का रूप तथा इससे (ज्ञान) गुण होता है, वह कहते हैं - सीलस्स य णाणस्स यणत्थि विरोहो बुधेहिं णिद्दिट्ठो। णवरि य सीलेण विणा विसया णाणं विणासंति ।।२।। शीलस्य च ज्ञानस्य च नास्ति विरोधो बुधैः निर्दिष्टः । केवलं च शीलेन विना विषया: ज्ञानं विनाशयति ।।२।। अर्थ - शील के और ज्ञान के ज्ञानियों ने विरोध नहीं कहा है। ऐसा नहीं है कि जहाँ शील हो वहाँ ज्ञान न हो और ज्ञान हो वहाँ शील न हो । यहाँ णवरि अर्थात विशेष है वह कहते हैं - शील के बिना विषय अर्थात् इन्द्रियों के विषय हैं वह ज्ञान को नष्ट करते हैं-ज्ञान को मिथ्यात्व रागद्वेषमय अज्ञानरूप करते हैं। यहाँ ऐसा जानना कि शील नाम स्वभाव का प्रकृति का प्रसिद्ध है, आत्मा का सामान्यरूप से ज्ञान स्वभाव है। इस ज्ञानस्वभाव में अनादि कर्मसंयोग से (पर संग करने की प्रवृत्ति से) मिथ्यात्व रागद्वेषरूप परिणाम होता है इसलिए यह ज्ञान की प्रकृति कुशील नाम को प्राप्त करती है इससे संसार बनता है, इसलिए इसको संसार प्रकृति कहते हैं, इस प्रकृति को अज्ञानरूप कहते हैं, इस कुशील-प्रकृति से संसार पर्याय में अपनत्व मानता है तथा परद्रव्यों में इष्ट अनिष्ट बुद्धि करता है। यह प्रकृति पलटे तब मिथ्यात्व का अभाव कहा जाय, तब फिर न संसार पर्याय में अपनत्व मानता है, न परद्रव्यों में इष्ट-अनिष्ट बुद्धि होती है और (पद-अनुसार अर्थात्) इस भाव की पूर्णता न हो तबतक चारित्रमोह के उदय से (उदय में युक्त होने से) कुछ रागद्वेष कषाय परिणाम उत्पन्न होते हैं उनको कर्म का उदय जाने, उन भावों को त्यागने योग्य जाने, त्यागना चाहे ऐसी प्रकृति हो तब सम्यग्दर्शनरूप भाव कहते हैं, इस सम्यग्दर्शन भाव से ज्ञान भी सम्यक् नाम पाता है शील एवं ज्ञान में कुछ भी विरोध नहीं कहा। शील बिन तो विषयविष से ज्ञानधन का नाश हो ।।२।।

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