Book Title: Ashtapahud
Author(s): Kundkundacharya, 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 369
________________ शीलपाहुड ३३१ भी वल्लभ होते हैं, उनकी सेवा देव भी करते हैं, जो श्रुतपारग अर्थात् शास्त्र के पार पहुँचे हैं, ग्यारह अंग तक पढ़े हैं, ऐसे बहुत हैं और उनमें कई शीलगुण से रहित हैं, दुःशील हैं, विषयकषायों में आसक्त हैं वे तो लोक में 'अल्पका' अर्थात् न्यून हैं, वे मनुष्यों के भी प्रिय नहीं होते हैं तब देव कहाँ से सहायक हो ? भावार्थ - शास्त्र बहुत जाने और विषयासक्त हो तो उसका कोई सहायक न हो, चोर और अन्यायी की लोक में कोई सहायता नहीं करता है, परन्तु शीलगुण से मंडित हो और ज्ञान थोड़ा भी हो तो उसके उपकारी सहायक देव भी होते हैं, तब मनुष्य तो सहायक होते ही हैं । शील गुणवाला सबका प्यारा होता है ।। १७ ।। आगे कहते हैं कि जिनके शील है सुशील हैं उनका मनुष्यभव में जीना सफल है अच्छा है - सव्वे वि य परिहीणा रूवणिरूवा वि पडिदसुवया वि । सीलं जेसु सुसीलं सुजीविदं माणुसं तेसिं ।। १८ ।। सर्वेऽपि च परिहीना: रूपविरूपा अपि पतितसुवयसोऽसि । शीलं येषु सुशीलं संजीविदं मानुष्यं तेषाम् ।।१८।। अर्थ - जो सब प्राणियों में हीन हैं, कुलादिक से न्यून हैं और रूप से विरूप हैं, सुन्दर नहीं हैं, ‘पतितसुवयसः’ अर्थात् अवस्था से सुन्दर नहीं है, वृद्ध हो गये हैं, परन्तु जिनमें शील सुशील है, स्वभाव उत्तम है, कषायादिक की तीव्र आसक्तता नहीं है उनका मनुष्यपना सुजीवित है, जीना अच्छा है। भावार्थ - लोक में सब सामग्री से जो न्यून हैं, परन्तु स्वभाव उत्तम है, विषय - कषायों में आसक्त नहीं हैं तो वे उत्तम ही हैं, उनका मनुष्यभव सफल है, उनका जीवन प्रशंसा के योग्य है।।१८।। आगे कहते हैं कि जितने भी भले कार्य हैं वे सब शील के परिवार हैं - जीवदया दम सच्चं अचोरियं बंभचेरसंतोसे । सम्मद्दंसण णाणं तओ य सीलस्स परिवारो ।। १९ । । हों हीन कुल सुन्दर न हों सब प्राणियों से हीन हों । वृद्ध किन्तु सुशील हों नरभव उन्हीं का सफल है ।। १८ ।। इन्द्रियों का दमन करुणा सत्य सम्यक् ज्ञान - तप । अचौर्य ब्रह्मोपासना सब शील के परिवार हैं ।। १९ ।।

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