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अष्टपाहुड
लजाभयगारवत: मिथ्यादृष्टिः भवेत् सः
स फ ट म ।। ९ २ । । अर्थ – जो क्षुधादिक और रागद्वेषादिक दोषों से दूषित हो वह कुत्सित देव है, जो हिंसादि दोषों से सहित हो वह कुत्सित धर्म है, जो परिग्रहादि सहित हो वह कुत्सितलिंग है। जो इनकी वंदना करता है, पूजा करता है, वह तो प्रगट मिथ्यादृष्टि है।
यहाँ अब विशेष कहते हैं कि जो इनको भले-हित करनेवाले मानकर वंदना करता है, पूजा करता है वह तो प्रगट मिथ्यादष्टि है. परन्त जो लज्जा भय गारव इन कारणों से भी वंदना करता है पूजा करता है वह भी प्रगट मिथ्यादृष्टि है। लज्जा तो ऐसे कि लोग इनकी वन्दना करते हैं, पूजा करते हैं, हम नहीं पूजेंगे तो लोग हमको क्या कहेंगे ? हमारी इस लोक में प्रतिष्ठा चली जायेगी इसप्रकार लज्जा से वंदना व पूजा करे । भय ऐसे कि इनको राजादिक मानते हैं, हम नहीं मानेंगे तो हमारे ऊपर कुछ उपद्रव आ जायेगा, इसप्रकार भय से वंदना व पूजा करे । गारव ऐसे कि हम बड़े हैं, महंत पुरुष हैं, सब ही का सन्मान करते हैं, इन कार्यों से हमारी बड़ाई है, इसप्रकार गारव से वंदना व पूजना होता है। इसप्रकार मिथ्यादृष्टि के चिह्न कहे ।।९२।। आगे इसी अर्थ को दृढ़ करते हुए कहते हैं कि -
सपरावेक्खं लिंगं राई देवं असंजयं वंदे। मण्णइ मिच्छादिट्ठी ण हु मण्णइ सुद्धसम्मत्तो ।।९३।। स्वपरापेक्षं लिंगं रागिणं देवं असंयतं वन्दे ।
मानयति मिथ्यादृष्टिः न स्फुटं मानयति शुद्धसम्यक्ती ।।९३।। अर्थ – स्वपरापेक्ष तो लिंग आप कुछ लौकिक प्रयोजन मन में धारण कर भेष ले वह स्वापेक्ष है और किसी पर की अपेक्षा से धारण करे, किसी के आग्रह तथा राजादिक के भय से धारण करे वह परापेक्ष है। रागी देव (जिसके स्त्री आदि का राग पाया जाता है) और संयमरहित को इसप्रकार कहे कि मैं वंदना करता हूँ तथा इनको माने, श्रद्धान करे वह मिथ्यादृष्टि है। शुद्ध सम्यक्त्व होने पर न इनको मानता है, न श्रद्धान करता है और न वंदना व पूजन ही करता है।
अरे रागी देवता अर स्वपरपेक्षा लिंगधर । व असंयत की वंदना न करें सम्यग्दृष्टिजन ।।९३।। जिनदेव देशित धर्म की श्रद्धा करें सदृष्टिजन । विपरीतता धारण करें बस सभी मिथ्यादृष्टिजन ।।१४।।