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मोक्षपाहुड
भावार्थ - ये ऊपर कहे इनसे मिथ्यादृष्टि के प्रीति भक्ति उत्पन्न होती है, जो निरतिचार सम्यक्त्ववान् है वह इनको नहीं मानता है ।। ९३ ।।
सम्माइट्ठी सावय धम्मं जिणदेवदेसियं कुणदि । विवरीयं कुव्वंतो मिच्छादिट्ठी मुणेयव्वो । । ९४ । ।
सम्यग्दृष्टिः श्रावक: धर्मं जिनदेवदेशितं करोति । विपरीतं कुर्वन् मिथ्यादृष्टिः ज्ञातव्यः । । ९४।।
अर्थ - जो जिनदेव से उपदेशित धर्म का पालन करता है वह सम्यग्दृष्टि श्रावक है और अन्यमत के उपदेशित धर्म का पालन करता है उसे मिथ्यादृष्टि जानना ।
भावार्थ - इसप्रकार कहने से यहाँ कोई तर्क करे कि यह तो अपना मत पुष्ट करने की पक्षपातमात्र वार्ता कही, अब इसका उत्तर देते हैं कि ऐसा नहीं है, जिससे सब जीवों का हित हो वह धर्म है ऐसे अहिंसारूप धर्म का जिनदेव ही ने प्ररूपण किया है, अन्यमत में ऐसे धर्म का निरूपण नहीं है, इसप्रकार जानना चाहिए ।। ९४ ।।
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आगे कहते हैं कि जो मिथ्यादृष्टि जीव है वह संसार में दुःखसहित भ्रमण करता है मिच्छादिट्ठी जो सो संसारे संसरेइ सुहरहिओ । जम्मजरमरणपउरे दुक्खसहस्साउले जीवो । । ९५।।
मिथ्यादृष्टि: य: सः संसारे संसरति सुखरहितः । जन्मजरामरणप्रचुरे दुःखसहस्राकुलः जीवः ।। ९५ ।।
अर्थ - जो मिथ्यादृष्टि जीव है वह जन्म जरा मरण से प्रचुर और हजारों दुःखों से व्याप्त इस संसार में सुखरहित दुखी होकर भ्रमण करता है।
भावार्थ - मिथ्याभाव का फल संसार में भ्रमण करना ही है, यह संसार जन्म जरा मरण आदि हजारों दुःखों से भरा है, इन दुःखों को मिथ्यादृष्टि इस संसार में भ्रमण करता हुआ भोगता है । यहाँ दुःख तो अनन्त हैं हजारों कहने से प्रसिद्ध अपेक्षा बहुलता बताई है ।।९५।।
अरे मिथ्यादृष्टिजन इस सुखरहित संसार में । प्रचुर जन्म-जरा-मरण के दुख हजारों भोगते । । ९५ । । जानकर सम्यक्त्व के गुण-दोष मिथ्याभाव के । जो रुचे वह ही करो अधिक प्रलाप से है लाभ क्या ।। ९६ ।।