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मोक्षपाहुड मतवाले जिन्हें देव मानते हैं वे सब देव क्षुधादि तथा रागद्वेषादि दोषों से संयुक्त हैं, इसलिए वीतराग सर्वज्ञ अरहंतदेव सब दोषों से रहित हैं उनको देव माने, श्रद्धान करे वही सम्यग्दृष्टि है।
यहाँ अठारह दोष कहे वे प्रधानता की अपेक्षा कहे हैं इनको उपलक्षणरूप जानना, इनके समान अन्य भी जान लेना। निर्ग्रन्थ प्रवचन अर्थात् मोक्षमार्ग वही मोक्षमार्ग है, अन्यलिंग से अन्य मतवाले श्वेताम्बरादिक जैनाभास मोक्ष मानते हैं, वह मोक्षमार्ग नहीं है। ऐसा श्रद्धान करे वह सम्यग्दृष्टि है, ऐसा जानना ।।९०।। आगे इसी अर्थ को दृढ़ करते हुए कहते हैं -
जहजायरूवरूवं सुसंजयं सव्वसंगपरिचत्तं । लिंगं ण परावेक्खं जो मण्णइ तस्स सम्मत्तं ।।९१।।
यथाजातरूपरूपं सुसंयत सर्वसंगपरित्यक्तम् ।
लिंगं न परापेक्षं य: मन्यते तस्य सम्यक्त्वम् ।।९१।। अर्थ – मोक्षमार्ग का लिंग-भेष ऐसा है कि यथाजातरूप तो जिसका रूप है, जिसमें बाह्य परिग्रह वस्त्रादिक किंचित् मात्र भी सुसंयत अर्थात् सम्यक् प्रकार इन्द्रियों का निग्रह और जीवों की दया जिसमें पाई जाती है ऐसा संयम है, सर्वसंग अर्थात् सब ही परिग्रह तथा सब लौकिक जनों की संगति से रहित है और जिसमें पर की अपेक्षा कुछ भी नहीं है, मोक्ष के प्रयोजन सिवाय अन्य प्रयोजन की अपेक्षा नहीं है। ऐसा मोक्षमार्ग का लिंग माने-श्रद्धान करे उस जीव के सम्यक्त्व होता है।
भावार्थ - मोक्षमार्ग में ऐसा ही लिंग है, अन्य अनेक भेष हैं वे मोक्षमार्ग में नहीं हैं ऐसा श्रद्धान करे उनके सम्यक्त्व होता है। यहाँ परापेक्षा नहीं है - यहाँ बताया है कि ऐसे निर्ग्रन्थ रूप को जो किसी अन्य आशय से धारण करे तो वह भेष मोक्षमार्ग नहीं है, केवल मोक्ष ही की अपेक्षा जिसके हो वह सम्यग्दृष्टि है, ऐसा जानना ।।९१।। आगे मिथ्यादृष्टि के चिह्न कहते हैं -
कुच्छियदेवं धम्मं कुच्छियलिंगं च बंदए जो दु। लज्जाभयगारवदो मिच्छादिट्ठी हवे सो हु ।।९२।। -कुत्सितदेवं धर्म कृत्सितलिंगं च वन्दते यः तु। जॉ लाज-भय से नमैं कुत्सित लिंग कुत्सित देव को। और सेवें धर्म कुत्सित जीव मिथ्यादृष्टि वे ।।१२।।