Book Title: Ashtapahud
Author(s): Kundkundacharya, 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 327
________________ २८९ मोक्षपाहुड सम्यकत्वं यः ध्यायति सम्यग्दृष्टिः भवति स: जीवः । सम्यक्त्वपरिणत: पुन: क्षपयति दुष्टाष्टकर्माणि ।।८७।। अर्थ – जो श्रावक सम्यक्त्व का ध्यान करता है वह जीव सम्यग्दृष्टि है और सम्यक्त्वरूप परिणमता हुआ दुष्ट आठ कर्मों का क्षय करता है। भावार्थ - सम्यक्त्व का ध्यान इसप्रकार है - यदि पहिले सम्यक्त्व न हुआ हो तो भी इसका स्वरूप जानकर इसका ध्यान करे तो सम्यग्दृष्टि हो जाता है। सम्यक्त्व होने पर इसका परिणाम ऐसा है कि संसार के कारण जो दुष्ट अष्ट कर्म उनका क्षय होता है, सम्यक्त्व के होते ही कर्मों की गुणश्रेणी निर्जरा होने लग जाती है, अनुक्रम से मुनि होने पर चारित्र और शुक्लध्यान इसके सहकारी हो जाते हैं, तब सब कर्मों का नाश हो जाता है ।।८७।। आगे इसको संक्षेप से कहते हैं - किं बहुणा भणिएणं जे सिद्धा णरवरा गए काले। सिज्झिहहि जे वि भविया तं जाणह सम्ममाहप्पं ।।८८।। किं बहुना भणितेन ये सिद्धा: नरवरा: गते काले । सेत्स्यंति येऽपि भव्या: तज्जानीत सम्यक्त्वमाहात्म्यम् ।।८८॥ अर्थ - आचार्य कहते हैं कि बहुत कहने से क्या साध्य है ? जो नरप्रधान अतीतकाल में सिद्ध हुए हैं और आगामी काल में सिद्ध होंगे वह सम्यक्त्व का माहात्म्य जानो। भावार्थ - इस सम्यक्त्व का ऐसा माहात्म्य है कि जो अष्टकर्मों का नाशकर मुक्तिप्राप्त अतीतकाल में हुए हैं तथा आगामी काल में होंगे वे इस सम्यक्त्व से ही हुए हैं और होंगे, इसलिए आचार्य कहते हैं कि बहुत कहने से क्या ? यह संक्षेप से कहा जानो कि मुक्ति का प्रधान कारण यह सम्यक्त्व ही है। ऐसा मत जानो कि गृहस्थ के क्या धर्म है, यह सम्यक्त्व धर्म ऐसा है कि सब धर्मों के अंगों को सफल करता है ।।८८।। आगे कहते हैं कि जो निरन्तर सम्यक्त्व का पालन करते हैं, वे धन्य हैं - मक्ति गये या जायेंगे माहात्म्य है सम्यक्त्व का। यह जान लोहेभव्यजन! इससे अधिक अबकहें क्या।।८८ ।। वे धन्य हैं सुकृतार्थ हैं वे शूर नर पण्डित वही। दुःस्वप्न में सम्यक्त्व को जिनने मलीन किया नहीं।।८९।।

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