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मोक्षपाहुड
प्रगट सुचरित्रा अर्थात् निर्दोष चारित्रयुक्त होते हुए जिनवर तीर्थंकरों के मार्ग का अनुलग्न (अनुसंधान, अनुसरण) करते हुए निर्वाण को प्राप्त करते हैं।
भावार्थ - परद्रव्य का त्याग कर जो अपने स्वरूप का ध्यान करते हैं वे निश्चय चारित्ररूप होकर जिनमार्ग में लगते हैं, वे मोक्ष को प्राप्त करते हैं ।। १९ ।।
आगे कहते हैं कि जिनमार्ग में लगा हुआ योगी शुद्धात्मा का ध्यान कर मोक्ष को प्राप्त करता है तो क्या उससे स्वर्ग नहीं प्राप्त कर सकता है ? अवश्य ही प्राप्त कर सकता है -
जिणवरमण जोई झाणे झाएह सुद्धमप्पाणं ।
जेण लहड़ णिव्वाणं ण लहइ किं तेण सुरलोयं ॥ २० ॥ जिनवरमतेन योगी ध्याने ध्यायति शुद्धमात्मानम् ।
येन लभते निर्वाणं न लभते किं तेन सुरलोकम् ।।२०।।
अर्थ – योगी ध्यानी मुनि है वह जिनवर भगवान के मत से शुद्ध आत्मा को ध्यान में ध्याता है उससे निर्वाण को प्राप्त करता है तो उससे क्या स्वर्गलोक नहीं प्राप्त कर सकते हैं ? अवश्य ही प्राप्त करते हैं।
भावार्थ – कोई जानता होगा कि जो जिनमार्ग में लगकर आत्मा का ध्यान करता है वह मोक्ष को प्राप्त करता है और स्वर्ग तो इससे होता नहीं है, उसको कहा है कि जिनमार्ग में प्रवर्तनेवाला शुद्ध आत्मा का ध्यान कर मोक्ष प्राप्त करता ही है तो उससे स्वर्गलोक क्या कठिन है ? यह तो इसके मार्ग में ही है ॥ २० ॥
आगे इस अर्थ को दृष्टान्त द्वारा दृढ़ करते हैं
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जो जाइ जोयणसयं दियहेणेक्केण लेवि गुरुभारं ।
सो किं कोसद्धं पि हु ण सक्कए जाउ भुवणयले ।। २१ ।। यः याति योजनशतं दिवसेनैकेने लात्वा गुरुभारम् । स किं क्रोशार्द्धमपि स्फुटं न शक्नोति यातु भुवनतले ।। २१ ।।
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शुद्धात्मा को ध्यावते जो योगि जिनवरमत विषै । निर्वाणपद को प्राप्त हों तब क्यों न पावें स्वर्ग वे ||२०||
गुरु भार लेकर एक दिन में जाँय जो योजन शतक । जावे न क्यों क्रोशार्द्ध में इस भुवनतल में लोक में ।। २१ । ।