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भावपाहुड
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कुशील कहते हैं। जो वैद्यक ज्योतिषविद्या मंत्र की आजीविका करे, राजादिक का सेवक होवे इसप्रकार के वेषधारी को संसक्त कहते हैं । जो जिनसूत्र से प्रतिकूल, चारित्र से भ्रष्ट आलसी इसप्रकार वेषधारी को ‘अवसन्न' कहते हैं। गुरु का आश्रय छोड़कर एकाकी स्वच्छन्द प्रवर्ते, जिन आज्ञा का लोप करे ऐसे वेषधारी को 'मृगचारी' कहते हैं । इनकी भावना भावे वह दु:ख ही को प्राप्त होता है ।। १४ ।।
ऐसे देव होकर मानसिक पाये इसप्रकार कहते हैं दु:ख
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देवाण गुण विहूई इड्ढी माहप्प बहुविहं दठ्ठे | होऊण हीणदेवो पत्तो बहु माणसं दुक्खं ।। १५ ।।
देवानां गुणान् विभूती: ऋद्धी: माहात्म्यं बहुविधं दृष्ट्वा ।
भूत्वा हीनदेव: प्राप्तः बहु मानसं दुःखम् ।। १५ ।।
अर्थ - हे जीव ! तू हीन देव होकर अन्य महर्द्धिक देवों के गुण, विभूति और ऋद्धि रूप अनेकप्रकार का माहात्म्य देखकर बहुत मानसिक दुःख को प्राप्त हुआ।
भावार्थ - स्वर्ग में हीन देव होकर बड़े ऋद्धिधारी देव के अणिमादि गुण की विभूति देखे तथा देवांगना आदि का बहुत परिवार देखे और आज्ञा, ऐश्वर्य आदि का माहात्म्य देखे तब मन में इसप्रकार विचारे कि मैं पुण्यरहित हूँ, ये बड़े पुण्यवान् हैं, इनके ऐसी विभूतिमाहात्म्य ऋद्धि है, इसप्रकार विचार करने से मानसिक दुःख होता है ।। १५ ।।
आगे कहते हैं कि अशुभ भावना से नीच देव होकर ऐसे दु:ख पाते हैं, ऐसे कहकर इस कथन का संकोच करते हैं
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चउविहविकहासत्तो मयमत्तो असुहभावपयडत्थो ।
होऊण कुदेवत्तं पत्तो सि अणेयवाराओ ।। १६ ।। चतुर्विधविकथासक्त: मदमत्त: अशुभभावप्रकटार्थः । भूत्वा कुदेवत्वं प्राप्तः असि अनेकवारान् । । १६ ।।
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नहीनता र विभूति गुण - ऋद्धि महिमा अन्य की लख मानसिक संताप हो है यह अवस्था देव की ।। १५ । चतुर्विध विकथा कथा आसक्त अर मदमत्त हो । यह आतमा बहुबार हीन कुदेवपन को प्राप्त हो । । १६ ।।