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सुख-दुःख, प्रेम-स्नेह, पास-पड़ौसी, घर-द्वार, गाय-बैल, खेत-खलिहान इत्यादिकी बातें सुनते-सुनते बनता अघाएगी नहीं। आज जिसके जीवनकी कथा हमें तुच्छतम दीख पड़ती है वह शत शताब्दियोंके बाद कवित्वकी तरह सुनाई पड़ेगी।"
सन्ध्या बेला लाठी काँखे बोझा बहि शिरे । नदीतीरे पल्लीवासी घरे जाय फिरे ।। शत शताब्दी परे यदि कोनो मते । मन्त्र बले, अतीतेर मृत्युराज्य ह'ते ॥ एई चाषी देखा देय ह'ये मूर्तिमान । एई लाठि काँखे लये विस्मित नयान । चारि दिके धिरि तारे असीम जनता । काड़ाकाड़ि करि लवे तार प्रति कथा ॥ ता'र सुख दुःख यत तार प्रेम स्नेह । तार पाड़ा प्रतिवेशी, तार निज गेह ॥ तार क्षेत तार गरु तार चाख बास । शुने शुने किछ तेइ मिटिवे न आश || आजि जाँर जीवनेर कथा तुच्छतम ।
से दिन शुनावे ताहा कवित्वेर सम ! मान लीजिए यदि आज हमारी मातृभाषाके सौ दो सौ लेखक विस्तारपूर्वक अपने अनुभवोंको लिपिबद्ध कर दें तो सन् २२५७ ईस्वीमें वे उतने ही मनोरंजक और महत्त्वपूर्ण बन जावेंगे, जितने मनोरंजक कविवर बनारसीदासजीके अनुभव हमें आज प्रतीत हो रहे हैं । गदरको हुए अभी बहुत दिन नहीं हुए । हमारे देशमें ऐसे व्यक्ति मौजूद थे जिन्होंने सन् १८५७ का गदर देखा था। इस गदरका आँखों देखा विवरण एक महाराष्ट्रयात्री श्रीयुत विष्णुभटने किवा था और सन् १९०७ में सुप्रसिद्ध इतिहासकार श्री चिन्तामण विनायक वैद्यने इसे लेखकके वंशजोंके यहाँ पड़ा हुआ पाया था। उन्होंने उसे प्रकाशित भी करा दिया। उसकी मूल प्रति पूनाके 'भारत-इतिहास-संशोधक मंडल' में सुरक्षित है। चब विष्णुभटको पूनामें यह खबर मिली कि श्रीमती बायजाबाई सिंघिया मथुरामें सर्वतोमुख यज्ञ करानेवाली हैं तो आपने मथुरा जानेका निश्चय
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