________________
विवेकजुद्ध' लिखनेके लिए इनसे अच्छा आधार और नहीं मिल सकता था ? अवश्य ही मोहविवेक-जुद्धके कर्ता ये बनारसीदास कोई दूसरे ही हैं और उक्त कवियोंकी ही किसी परम्पराके हैं।
इसके विरुद्ध दो बातें कही जाती हैं, एक तो यह कि मोहविवेकजुद्धकी प्रतियाँ अनेक जैनभंडारोंमें पाई गई हैं और बीकानेरके खरतरगच्छीय बड़े भंडारके एक गुटकेमें बनारसीविलासके साथ यह भी लिखा हुआ है और दूसरी बात यह कि उसमें दो दोहे इस प्रकार हैं
श्री जिनभक्ति सुदृढ जहां, सदैव मुनिवरसंग । कहै क्रोध तहां मैं नहीं, लग्यौ सु आतमरंग ॥ ५८ अविभचारिणी जिनभगति, आतम अंग सहाय ।
कहै काम ऐसी जहां, मेरी तहां न बसाय ।। ३२ इसके सिवाय अन्तमें 'बरनन करत बनारसी, समकित नाम सुभाय' पद पड़ा हुआ है।
परन्तु एक तो जब बैनभंडारोंमें सैकड़ों अजैन ग्रन्थ संग्रह किये गये हैं तब उनमें इसका मी संग्रह आश्चर्यजनक नहीं और दूसरे, उक्त दोहोंके पाठोंमें हमें बहुत सन्देह है । प्रतिलिपि करनेवाले 'हरिभगति' की जगह 'जिनभगति' पाठ आसानीसे बना सकते हैं। जिनभक्तिको 'अव्यभिचारिणी' विशेषा किसी जैन रचनामें अब तक नहीं देखा गया । वह हरिभक्ति रामभक्तिके लिए ही प्रयुक्त होता है।
इसके सिवाय मोह, विवेक, काम, क्रोध आदि शब्दोंको देखकर ही तो इसपर जैनधर्मकी छाप नहीं लग सकती । ये शब्द तो प्रायः सभी धर्मों और सम्प्रदायोंमें समानरूपसे व्यवहृत हैं । इसका कर्ता जैन होता तो कहीं न कहीं क्रोध मान आदिको ‘कषाय' कहता, विवेकको 'सम्यग्ज्ञान' कहता, पर इसमें कहीं भी किसी जैन पारिभाषिक शब्दका उपयोग नहीं किया गया है। इसमें जो पौराणिक उदाहरण आये हैं वे भी विचारणीय हैं। काम कहता है
महादेव मोहिनी नचायो, घरमैं ही ब्रह्मा भरमायौ। सुरपति ताकी गुरुकी नारी, और काम को सकै संहारी ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org