Book Title: Arddha Kathanak
Author(s): Banarasidas
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

View full book text
Previous | Next

Page 147
________________ २४ लागी छुधा पुकारै सोइ । गुरुजन पथ्य देइ नहि कोइ ॥ तब मांगै देखनकौं रोइ । आध सेरकी पूरी दोइ ॥ २०६ खाट हेठ ल धरी दुराइ । सो बनारसी भखी चुराइ ॥ वाही पथसौं नीको भयौ । देख्यौ लोगनि कौतुक नयौ ॥२०७॥ साठे संबत करि दिढ़ हियौ । खरगसेन इक सौदा लियौ । तामैं भए सौगुने दाम । चहल पहल हुई निज धाम ॥ २०८ यह साठे संबतकी कथा । ज्यौं देखी मैं बरनी तथा ॥ समै उनसठे सावन बीच । कोऊ संन्यासी नर नीच ॥ २०९ आइ मिल्यौ सो आकसमात । कही बनारसिसौं तिन बात ॥ एक मंत्र है मेरे पास । सो बिधिरूप जपै जो दास ॥ २१० बरस एक लौं साथै नित्त । दिढ़ प्रतीति आनै निज चित्त ॥ जपै बैठि छरछोभी मांहि । भेद न भाखै किस ही पांहि ॥ २११ 'पूरन होइ मंत्र जिस बार । तिसके फलका कहूं बिचार ॥ प्रात समय आवै गृहद्वार । पावै एक पड्या दीनार ॥ २१२ बरस एक लौं पावै सोइ । फिरि साध फिरि ऐसी होइ ॥ यह सब बात बनारसि सुनी । जान्या महापुरष है गुनी ॥ २१३ पकरे पाइ लोभके लिए । मांगै मंत्र बीनती किए । तब तिन दीनौं मंत्र सिखाइ । अक्खर कागदमांहि लिखाइ ॥२१४ वह प्रदेस उठि गयौ स्वतंत्र । सठ बनारसी साथै मंत्र ॥ बरस एक लौं कीनौ खेद । दीनौं नांहि औरकौं भेद ॥ २१५ १ ड छरछूवी, इ छरछोबी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184