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एक दिवस बानारसिदास । गए पार उधरनके पास ॥ बेचा घीऊ तेल सब झारि । बढ़ती नफा रुपैया च्यारि ॥३१५ हुंडी आई दी. दाम । बात उहांकी जानै राम ॥ बेंचि खोंचि आए उर पार । भए जबाहर बेंचनहार ॥ ३१६ देहिं ताहि जो मांगै कोइ । साधु कुसाधु न देखै टोइ ॥ कोऊ बस्तु कहूं लै जाइ । कोऊ लेइ गिरौं धरि खाइ ॥ ३१७ नगर आगरेको ब्यौपार । मूल न जानै मूढ़ गंवार ।। आयौ उदै असुभकौ जोर । घटती होत चली चहु ओर ॥ ३१८
दोहरा नारे मांहि इजारके, बंध्यौ हुतौ दुल म्यान । नारा ट्यौ गिरि परयौ, भयौ प्रथम यह ग्यान ॥ ३१९ खुलौ जवाहर जो हुतौ, सो सब थी उसनांहि ॥ लगी चोट गुपती सही, कही न किस ही पांहि ॥ ३२० मानिक नॉरेके पले, बांध्यौ साटि उचाटि ॥ धरी इजार अलंगनी, मृसा लै गयौ काटि॥ ३२१ पहुंची दोइ जड़ाउकी, बैंची गाहकपांहि ॥ दाम करोरी लेइ रह्यौ, परि देवाले मांहि ॥ ३२२ मुद्रा. एक जड़ाउकी, ऐसे डारी खोइ । गांठि देत खाली परी, गिरी न पाई सोइ ॥ ३२३ रेज परेजी वस्तु कछु, बुगचा बागे दोइ ॥
हंब्वाई वरमैं रही, और बिसाति न कोई ॥ ३२३ १ अ असाधु । २ अ थ्यौ। ३ ब नारेके सले। ४ व सार उबाट । ५ व पौहची ।
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