Book Title: Arddha Kathanak
Author(s): Banarasidas
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 161
________________ ३८ लटा कुटा जो कि हुतौ, सो सब खायौ झोरि । हंडवाई खाई सकल, रहे टका द्वै चारि ॥ ३३४ ॥ तब घरमैं बैठे रहें, जांहि न हाट बजार । मधुमालति मिरगावती, पोथी दोइ उदौर | ३३५ ॥ ते बांचहिं रजनीसमै, आवहिं नर दस बीस । गावहिं अरु बातें करहिं, नित उठि देंहि असीस ॥ ३३६ ॥ सो सामा घरमैं नहीं, जो प्रभात उठि खाइ । एक कचौरीबाल नर, कथा सुनै नित आइ ॥ ३३७ ॥ वाकी हाट उधार करि, लैंहि कचौरी सेर यह प्राक भोजन करहिं, नित उँठि सांझ सवेर ॥ ३३८ ॥ कब आवहिं हाटमंहि, कबहू डेरामांहि । दसा न काहूसौं कहैं, करज कचौरी खांहिं ॥ ३३९॥ एक दिवस बानारसी, समौ पाइ एकंत । कहै कचौरीबालसौं, गुपत गेह - विरतंत || ३४० ॥ तुम उधार दीनौ बहुत, आगै अब जिनि देहु । मेरे पास किछू नहीं, दाम कहांसों लेहु || ३४१ ॥ कहै कचौरीबाल नर, बीस रुपैया खाहु । तुमसौं कोउ न कछु कहै, जहं भावै तहं जाहु ॥ ३४२ ॥ तब चुप भयौ बनारसी, कोउ न जानै बात | कथा कहै बैठौ रहै, बीते मास छ - सात || ३४३ ॥ १ ब इ डारि । २ ब उचारि । ३ ब प्रति । ४ अ प्रतिमें यहाँ ३४१ नम्बर पड़ा है और आगे अन्त तक यह दो नम्बरोंकी भूल चली गई है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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