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लटा कुटा जो कि हुतौ, सो सब खायौ झोरि । हंडवाई खाई सकल, रहे टका द्वै चारि ॥ ३३४ ॥ तब घरमैं बैठे रहें, जांहि न हाट बजार । मधुमालति मिरगावती, पोथी दोइ उदौर | ३३५ ॥ ते बांचहिं रजनीसमै, आवहिं नर दस बीस । गावहिं अरु बातें करहिं, नित उठि देंहि असीस ॥ ३३६ ॥ सो सामा घरमैं नहीं, जो प्रभात उठि खाइ । एक कचौरीबाल नर, कथा सुनै नित आइ ॥ ३३७ ॥ वाकी हाट उधार करि, लैंहि कचौरी सेर
यह प्राक भोजन करहिं, नित उँठि सांझ सवेर ॥ ३३८ ॥
कब आवहिं हाटमंहि, कबहू डेरामांहि । दसा न काहूसौं कहैं, करज कचौरी खांहिं ॥ ३३९॥ एक दिवस बानारसी, समौ पाइ एकंत । कहै कचौरीबालसौं, गुपत गेह - विरतंत || ३४० ॥
तुम उधार दीनौ बहुत, आगै अब जिनि देहु । मेरे पास किछू नहीं, दाम कहांसों लेहु || ३४१ ॥ कहै कचौरीबाल नर, बीस रुपैया खाहु । तुमसौं कोउ न कछु कहै, जहं भावै तहं जाहु ॥ ३४२ ॥ तब चुप भयौ बनारसी, कोउ न जानै बात | कथा कहै बैठौ रहै, बीते मास छ - सात || ३४३ ॥
१ ब इ डारि । २ ब उचारि । ३ ब प्रति । ४ अ प्रतिमें यहाँ ३४१ नम्बर पड़ा है और आगे अन्त तक यह दो नम्बरोंकी भूल चली गई है ।
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