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कहौं एक दिनकी कथा, तांबी ताराचंद | ससुर बनारसिदासकौं, परबतकौ फरजंद ॥ ३४४ ॥ आयौ रजनीके समै, बानारसिके भौन ।
जब लौं सब बैठे रहे, तब लौं पकरी मौन ॥ ३४५ ॥ जब सब लोग बिदा भए, गए अपने गेह । तब बनारसीसौं कियौ, ताराचंद सनेह ॥ ३४६ ॥ करि सनेह बिनती करी, तुम नेउते परभात | कालि उहां भोजन करौ, आवस्सिक यह बात ॥ ३४७ ॥ चौप
यह कहि निसि अपने घर गयौ । फिरि आयौ प्रभात जब भयौ ॥ कहै बनारसिसौं तब सोइ । उहां प्रभात रसोई होइ ॥ ३४८ ॥ तातैं अब चलिए इस बार । भोजन करि आवहु बाजार || ताराचंद कियौ छल एह । बानारसी गयौ तिस गेह ॥ ३४९ ॥ भेज्य एक आदमी कोइ । लटा कुटा ल आयौ सोइ ॥ घरका भाड़ा दिया चुकाइ । पकरे बानारसिके पाइ ॥ ३५० ॥ कहै बिसौं तारा साहु | इस घर रहौ उहां जिन जाहु ॥ हठ करि राखे डेरामांहि । तहां बनारसि रोटी खांहि ॥ ३५१ ॥ st विधि मास दोइ जब गए । धरमदासके साझी भए । जस अमरसी भाई दोइ । ओसवाल दिलवाली सोइ ॥ ३५२ ॥ करहिं बाहर बनज बहूत । धरमदास लघु बंधु कपूत ॥ कुसिन करे कुसंगति जाइ । खोवै दाम अमल बहु खाइ ॥ ३५३ ॥
१ ब सु निज निज । २ अ चलिए घर अब भई रसोइ । ३ अ दिवाली । ४ ब बांधवपूत |
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