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यह लखि कियौ सीरकौ संच । दी पूंजी मुद्रा से पंच ॥ धरमदास बानारसि यार । दोऊ सीर करहिं ब्यौपार ॥ ३५४ ॥ दोऊ फिरें आगरे मांझ । करहिं गस्त घर आवहिं सांझ । ल्यावहिं चूंनी मानिक मनी । बेंचहिं बहुरि खरीदहिं घनी ॥ ३५५ ॥ लिखा रोजनामा खतिआइ । नामी भर लोग पतिआइ || बेंहिं हिं चलावहिं काम दिए कचौरीवाले दाम ॥ ३५६ ॥
भए रुपैया चौदह ठीक । सब चुकाइ दीनै तहकीक ॥ तीन बार करि दीनों माल । हरषित कियौ कचौरीबाल ||३५७||
दोहरा बरस दोइ साझी रहे, फिर मन भयौ विषाद । तब बनारसीकी चली, मनसा खैराबाद || ३५८ ॥ एक दिवस बानारसी, गयौ साहुके धाम । कहै चलाऊ हम भए, लेहु आपने दाम || ३५९ ॥ चौपाई
जस साह तब दियौ जुआब । बेचहु थैलीको असबाब || जब एकठे हौंहि सत्र थोक । हमकौं दाम देहु तब रोक || ३६०||
तब बनारसी बेची बस्त । दाम एकठे किए समस्त ॥
गनि दीनें मुद्रा से पंच । बाकी कछू न राखी रंच ॥ ३६९ ॥
दोहरा
बरस दोइमैं दोइ सै, अधिके किए कमाइ |
बेची वस्तु बजार, बढ़ता गयौ समाइ । ॥ ३६२ ।।
और । २ अ बजावहिं । ३ अ ड बिढ़ता ।
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