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सोलह सै सत्तरि समै, लेखा कियौ अचूक । न्यारे भए बनारसी, करि साझा द्वै ट्रक ॥ ३६३॥
चौपई जो पाया सो खाया सर्व । बाकी कळू न बांच्या दर्व ।। करी मसस्कति गई अकाथ । कौड़ी एक न लागी हाथ ॥३६४॥ निकसी घौंधी सागर मथा। भई हींगवालेकी कथा ।। लेखा किया रूखतल बैठि । पूंजी गई गांडिमैं पैठि ॥ ३६५॥ सो बनारसीकी गति भई । फिरि आई दरिद्रता नई ॥ बरस डेढ़ लौं नाचे भले । है खाली घरको उठि चले ॥३६६ ।। एक दिवस फिरि आए हाट । घरसों चले गलीकी वाट ॥ सहज दिष्टि कीनी जब नीच । गठरी एक परी पैथ बीच ॥३६७।। सो वनारसी लई उठाइ । अपने डेरे खोली आइ ॥ मोती आठ और किछु नांहि । देखत खुसी भए मनमांहि ॥३६८॥ ताइत एक गढ़ायौ नयौ । मोती मेले संपुट दयौ॥ बांध्यौ कटि कीनौ बहु यत्न । जनु पायौ चिंतामनि रत्न ॥३६९॥ अंतरधनु राख्यौ निज पास । पूरब चले बनारसिदास ॥ चले चले आए तिस ठांउ । खराबाद नाम जहां गांउ ॥३७॥ कल्ला साहु ससुरके धाम । संध्या आइ कियौ विश्राम ॥ रजनी बनिता पूछ बात । कहौ आगरेकी कुसलात ॥ ३७१॥ . कहै बनारसि भाया-बैन । बनिता कहै झूठ सब फैन ॥ तब बनारसी सांची कही । मेरे पास कछु नहिं सही ॥३७२॥
१ अ वाचा। २ अ थोथी । ३ अ मग । ४ अ ड नारी ।
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