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जो कछु दाम कमाए नए । खरच खाइ फिरि खाली भए । नारी कहै सुनौ हो कंत । दुख सुखको दाता भगवंत ॥३७३॥
दोहरा समौ पाइकै दुख भयौ, समौ पाइ सुख होइ । होनहार सो है रहै, पाप पुन्न फल दोइ ।। ३७४॥
चौपई कहत सुनत अर्गलपुर-बात । रजनी गई भयौ परभात ॥ लहि एकंत कंतके पानि । बीस रुपैया दीए आनि ।। ३७५ ।। ऐ मैं जोरि धरे थे दाम । आए आज तुम्हारे काम ॥ साहिब चिंत न कीजै कोइ । पुरुष जिए तो सब कछु होइ ॥३७६।। यह कहि नारि गई मां पास । गुपत बात कीनी परगास ॥ माता काइसौं जिनि कहौ । निज पुत्रीकी लज्जा बहौ ॥३७७॥
दोहरा थोरे दिनमैं लेहु सुधि, तो तुम मा मैं धीय । नाहीं तौ दिन कैकुमैं, निकसि जाइगौ पीय ॥ ३७८॥
चौपई ऐसा पुरुष लजालू बड़ा । बात न कहै जात है गड़ा । कहै माइ जिनि होइ उदास । द्वै सै मुद्रा मेरे पास ॥ ३७९ ॥ गुपत देउँ तेरे करमांहि । जो वै बहुरि आगरे जाहि ।। पुत्री कहै धन्य तू माइ। मैं उनकौं निसि बृझा जाइ ॥ ३८० ॥
१ व बनिता कहै सुनो तुम कंत। २ व प्रतिमें यह पंक्ति नहीं है।
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