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रजनी समै मधुर मुख भास । बनिता कहै बनारसि पास । कंत तुम्हारौ कहा बिचार । इहां रहौ के करौ बिहार ॥ ३८१ ॥ . बानारसी कहै तियपांहि । हम तू साथ जौनपुर जांहि । बनिता कहै सुनहु पिय बात । उहां महा बिपदा उतपात ॥ ३८२ तुम फिर जाहु आगरेमांहि । तुमकों और ठौर कहुं नांहि । बानारसी कहै सुन तिया। बिनु धन मानुषका धिग जिया ॥ ३८३ दे धीरज फिरि बोलै बाम । करहु खरीद दैउं मैं दाम ॥ यह कहि दाम आनि गनि दिए। बात गुपत राखी निज हिए ॥३८४॥ तब बनारसी बहुरौ जगे । एती बात करनकौं लगे ॥ करें खरीद धोवा चीर । ढूंदें मोती मानिक हीर ॥ ३८५ ॥ जोरहिं ' अजितनाथके छंद'। लिखहिं ' नाममाला' भरि बंदै ॥ च्यारौं काज करहिं मन लाइ। अपनी अपनी बिरिया पाइ ॥ ३८६ इहि बिधि च्यारि महीनें गए । च्यारि काज संपूरन भए । करी 'नाममाला' सै दोइ । राखे 'अजित छंद' उरपोइ ॥ ३८७ कपरा धोइ भयौ तैयार । लियौ मोल मोतीको हार ॥ अगहन मास सुकल बारसी। चले आगरै बानारसी ॥ ३८८ ।।
दोहरा बहुरौं आए आगरै, फिरिकै दूजी बार । तब कटले परबेजके, आनि उतारयौ भार ॥ ३८९ ॥
चौपई कटलेमांहि ससुरकी हाट । तहां करहि भोजनको ठाठ ॥ रजनी सोबहि कोठीमांहि । नित उठि प्रात नखासे जांहि ॥३९०
१ अ विचार, ब ई व्यौहार । २ व धिग बिनु दाम पुरुपको जिया । ३ ब वृंद ।
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