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फरि बठहि बहु करै उपाइ । मंदा कपरा कछु न बिकाइ। आवहि जाहि करहि अति खेद । नहि समुझै भावीकौ भेद ॥ ३९१
दोहरा मोती-हार लियौ हुतौ, दै मुद्रा चालीस । सौ बेच्यो सतरि उठे, मिले रुपइआ तीस ॥ ३९२ ॥
. चौपई तब बनारसी करै विचार । भला जवाहरका ब्यापार ।। हुए पौन दृने इन मांहि । अब सौ वस्त्र खरीदहि नांहि ॥३९३॥ च्यारि मास लौकीनौ घंध । नहिं बिकाइ कारा पग बंध ॥ बैनीदास खोबरा गोत । ताको सास नरोत्तम' पोत ॥ ३९४ ।।
दोहरा
सो बनारसीको हितू, और बदलिआ 'थान'। रात दिवस क्रीड़ा करहिं, तीनों मित्र समान ॥ ३९५ ।।
चौपई चढ़ि गाड़ीपर तीनौं डौल । पूजा हेतु गए भर कौल । कर पूजा फिरि जोरे हाथ । तीनौं जनें एक ही साथ ॥ ३९६ ॥ प्रतिमा आगै भाई एहु । हमकों नाथ लच्छिमी देहु ॥ जब लच्छिमी देहु तुम तात । तब फिरि करहिं तुम्हारी जात ।। यह कहिक आए निज गेह ! तीनों मित्र भए इक देह । दिन अरु रात एकठे हैं । आप आपनी बातें कहैं ।। ३९८ ॥ आयौ फागुन मास विख्यात । बालचंदकी चली बरात ॥ ताराचंद मौठिया गोत । नेमाको सुत भयौ उदोत ॥ ३९९
१ ब व्यौहार।
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