Book Title: Arddha Kathanak
Author(s): Banarasidas
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

View full book text
Previous | Next

Page 158
________________ दीनौ एक पुरानो टाट । ऊपर आनि बिछाई खाट । कहै टाटपर कीजै सैन । मुझे खाट बिनु परै न चैन । ३०५ 'एवमस्तु' बानारसि कहै । जैसी जाहि परै सो सहै ॥ जैसा कातै तैसा बुनै । जैसा बोवै तैसा लुनै ॥ ३०६ पुरुष खाटपर सोया भले । तीनौ जनें खाटके तले ॥ सोए रजनी भई बितीत । ओढ़ी सौरि न ब्यापी सीत ॥ ३०७ भयौ प्रात आए फिरि तहां। गाड़ी सब उतरी ही जहां ॥ बरसा गई भई सुख सांति । फिरि उठि चले नित्यकी भांति ॥ ३०८ आए नगर आगरे बीच । तिस दिन फिरि बरसा अरु कीच । कपरा तेल घीउ धरि पार । आपु छरे आए उर पोर ॥ ३०९ मन चिंतवै बनारसिदास । किस दिसि जांहि कहां किस पास ॥ सोचि सोचि यह कीनौ ठीक । मोतीकटला कियौ रफीक ॥ ३१० तहां चांपसीके घर पास । लघु बहनेऊ बंदीदास ॥ तिसके डेरै जाइ तुरंत । सुनिए ' मला सगा अरु संत' ॥ ३११ यह बिचारि आए तिस पांहि । बहनेऊके डेरेमांहि ॥ हितसौं बूझै बंदीदास । कपरा घीउ तेल किस पास ॥ ३१२ तब बनारसी बोलै खरा । उधरनकी कोठीमौं धरा ॥ दिवस कैकु जब बीते और । डेरा जुदा लिया इक ठौर ॥ ३१३ पट-गठरी राखी तिसमांहि । नित्य नखासे आवहि जांहि ॥ बस्त्र बेचि जब लेखा किया । ब्याज-मूरै दै टोटा दिया ॥ ३१४ १ अ वार । २ डई मूल । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184