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लागी छुधा पुकारै सोइ । गुरुजन पथ्य देइ नहि कोइ ॥ तब मांगै देखनकौं रोइ । आध सेरकी पूरी दोइ ॥ २०६ खाट हेठ ल धरी दुराइ । सो बनारसी भखी चुराइ ॥ वाही पथसौं नीको भयौ । देख्यौ लोगनि कौतुक नयौ ॥२०७॥ साठे संबत करि दिढ़ हियौ । खरगसेन इक सौदा लियौ । तामैं भए सौगुने दाम । चहल पहल हुई निज धाम ॥ २०८ यह साठे संबतकी कथा । ज्यौं देखी मैं बरनी तथा ॥ समै उनसठे सावन बीच । कोऊ संन्यासी नर नीच ॥ २०९ आइ मिल्यौ सो आकसमात । कही बनारसिसौं तिन बात ॥ एक मंत्र है मेरे पास । सो बिधिरूप जपै जो दास ॥ २१० बरस एक लौं साथै नित्त । दिढ़ प्रतीति आनै निज चित्त ॥ जपै बैठि छरछोभी मांहि । भेद न भाखै किस ही पांहि ॥ २११ 'पूरन होइ मंत्र जिस बार । तिसके फलका कहूं बिचार ॥ प्रात समय आवै गृहद्वार । पावै एक पड्या दीनार ॥ २१२ बरस एक लौं पावै सोइ । फिरि साध फिरि ऐसी होइ ॥ यह सब बात बनारसि सुनी । जान्या महापुरष है गुनी ॥ २१३ पकरे पाइ लोभके लिए । मांगै मंत्र बीनती किए । तब तिन दीनौं मंत्र सिखाइ । अक्खर कागदमांहि लिखाइ ॥२१४ वह प्रदेस उठि गयौ स्वतंत्र । सठ बनारसी साथै मंत्र ॥ बरस एक लौं कीनौ खेद । दीनौं नांहि औरकौं भेद ॥ २१५
१ ड छरछूवी, इ छरछोबी ।
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