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बरस एक जब पूरा भया । तब बनारसी द्वारै गया । नीची दिष्टि बिलोकै धरा । कहुं दीनार न पावै परा ॥२१६॥ फिरि दूजै दिन आयौ द्वार । सुपने नहि देखै दीनार ॥ व्याकुल भयौ लोभके काज । चिंता बढ़ी न भावै नाज ॥२१७॥ कही भानसौं मनकी दुधा । तिनि जब कही बात यह मुधा ॥ तब बनारसी जॉनी सही। चिंता गई छुधा लहलही ॥२१८॥ जोगी एक मिल्यौ तिस आइ । बानारसी दियौ भौंदाइ । दीनी एक संखोली हाथ । पूजाकी सामग्री साथ ।। २१९ कहै सदासिव मूरति एह । प्रजै सो पावै सिव-गेह ।। तब बनारसी सीस चढ़ाइ। लीनी नित पूजे मन लाइ॥ २२० ठानि सनानि भगति चित धरै । अष्टप्रकारी पूजा करै ।। सिव सिव नाम जपै सौ बार । आठ अधिक मन हरख अपार ॥२२१
दोहरा पूजै तब भोजन करै, अनपूझै पछिताइ । तासु दंड अगिले दिवस, रूखा भोजन खाइ ॥ २२२ ऐसी विधि बहु दिन गएँ, करत गुपत सिवपूज । आयौ संवत इकसठा, चैत मास सित दृज ॥ २२३ साहिब साहि सलीमकौ, हीरानंद मुकीम ।। ओसवाल कुल जौहरी, बनिक बित्तकी सीम ॥२२४ १ ब मानी। २ ब बिन पूजै । ३ अ भए । ४ अ ड वृत्ति ।
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