Book Title: Anusandhan 2015 08 SrNo 67
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 13
________________ जून - २०१५ अनुसन्धान-६७ १३मा शतकनी ब्रण प्राञ्जल रचनाओ - सं. विजयशीलचन्द्रसूरि मेली-चीकणी-वासी गन्ध धरावती नहि थती होय. कदाच एटले ज ११मा-१२मा वगेरे शतकनां बिम्बो ज्या-ज्यारे पण प्रगट थाय छे त्यारे ते एकदम स्वच्छ, ऊजळां अने जाणे ताजां ज निर्मित होय तेवां होय छे. आजनी स्वीकृत पूजा-पद्धतिमा आ शक्य नथी रही. ३. त्रीजी कृति 'नवग्रहोना आह्वान'नी छे. ते पद्यात्मक नहि, गद्यात्मक छे. प्रत्येक ग्रह माटे प्रयुक्त विशेषणो कर्तानी भाषाकीय सज्जतानां-पाण्डित्यनां द्योतक बने छे. 'जिन'ना अभिषेकोत्सवमां ते काळे पण ९ ग्रहोर्नु आान थतुं हतुं, ते आ प्रकारनी रचना द्वारा जाणी शकाय छे. __ बीजी-त्रीजी कृतिओना कर्ता कोण हशे, ते अंगे प्रतिमां कोई उल्लेख थयो नथी. बनी शके के आ बे पण हर्षचन्द्रसूरिनी ज रचना होय. अथवा अन्यत्र क्याय ए रचनाओ मळी आवे अने त्यां कर्तानो निर्देश होय तो तेनी गवेषणा करवी घटे. श्रीआत्मारामजी जैन ज्ञानमन्दिर - वडोदरानी क्र. ३९नी ताडपत्र प्रतिनां त्रण जेरोक्स पानां क्यांकथी जड्यां : सम्भवत: स्व. आ. श्रीविजयसूर्योदयसरिजी म.ना सङ्ग्रहमांथी, तेमां त्रण नवीन कृतिओ नजरे चडी, तो तेनुं शक्य सम्पादन करी ते अत्रे प्रकट करवामां आवे छे. ते पानां पर पत्राङ्क ८७ थी ९४ आंकेला हता. १. प्रथम कृति 'महाभयहर जिनस्तव' छे. ते नव पद्यप्रमाण छे. क्रमशः हाथी, सिंह, सर्प, अग्नि, युद्ध, बन्धन, रोग, जल - एम आठ भयोर्नु निवारण जिनस्तवनाथी थाय - एवं निरूपण आ पद्योमां थयुं छे. भक्तामरस्तोत्रनी 'श्च्योतन्मदाविल०' थी लई 'मत्तद्विपेन्द्र०' सुधीनी गाथाओर्नु सहज स्मरण थाय. एम लागे छे के ते समयमां आवां भयहर पद्यो रचवानी व्यापक परम्परा हशे. आना कर्ता, अन्तमा लख्या प्रमाणे, वादीन्द्र धर्मघोषसूरिना शिष्य हर्षचन्द्रसूरि छे. वादीन्द्र धर्मघोषसूरि विषे 'जैन परम्पराना इतिहास'मां नोंधायेली वातो आ प्रमाणे छे : १२ मा शतकमां तेमनी सत्ताकाळ छे. ते धर्मसूरि नामे पण ओळखाता. अम्बिकादेवी वरदान तेमने मळेलुं. तेओ छ घडीमां ५०० श्लोको कण्ठे करता. अनेक वादोमां जीतवाने कारणे ते 'वादीन्द्र' तरीके ख्यात हता. तेमणे 'धर्मकल्पद्रुम' (११८६) नामे प्राकृत ग्रन्थ तथा 'गृहिधर्मपरिग्रहप्रमाण'नी रचना करी छे. तेमणे नहार, सुराणा, सांखला, खटोर आदि १०५ ओसवाल-गोत्रो तथा ३५ श्रीमालीनां गोत्रो नवां प्रवर्ताव्यां हता. तेमनो गच्छ ते धर्मघोषगच्छ अथवा सुराणागच्छ कहेवायो. कालांतरे ते गच्छनां ते गोत्रो तपागच्छने मानता थया. हर्षचन्द्रसूरिनो स्वतन्त्र परिचय उपलब्ध थतो नथी. २. बीजी कृति 'अष्टप्रकारी जिनपूजानां काव्यो' छे. ते समयमा अष्टप्रकारी पूजा जे रीते प्रचलित हती ते क्रम अहीं सचवायो छे. गन्ध, पुष्प, धूप, अक्षत, नैवेद्य, जल, फल, दीप, जलपूजामां पण जल भरेलो कलश भगवान समक्ष स्थापवानो ज निर्देश छे, प्रतिमा पर ते जल ढोळवार्नु नथी. ते समये प्रवर्तता आवा क्रमने कारणे प्रतिमाने रोज दूध-पाणीथी न्हवडाववानी न होवाथी प्रतिमा गंदी श्रीहर्षचन्द्रसूरिविरचितः श्रीजिनस्तवः तटीघ्रतटताटनत्रुटितकोटिदन्तार्गलो गलन्मदकटुक्वणभ्रमरडिण्डिमोड्डामरः । जिनेश्वर! धुरन्धरस्तरुणिमोद्धरः सिन्धुरो न धीरमभिधावति त्वदभिधाक्षरध्यायिनम् ॥१॥ क्षणक्षतमतङ्गजक्षरदसृक्जलप्रस्फुटच्छटाच्छुरितकेशरः प्रकटितस्फुरद्विक्रमः । विपाटिमसुखोत्कटो विकटदृष्टिदंष्ट्राङ्करो । हरिजिन! तव स्मृतेः क्रमगतोऽप्यपक्रामति ॥२॥ किरन्नतिविषाकुलस्फुरितविस्फुलिङ्गोत्करैः करम्बितदिशा दृशा क्षरदसृक्सदृक्षाचिषः । क्षितोऽपि सविधे क्षताद्दशति दन्दशूकः कथं विषापहरणं मणि स्मरणमर्हतां बिभ्रतः ॥३॥

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