Book Title: Anusandhan 2015 08 SrNo 67
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 72
________________ जून - २०१५ १३९ १४० अनुसन्धान-६७ है जबकि चूर्णिकार के अनुसार 'ऋजु' मार्ग का विशेषण है, ऋज यानी सीधे मार्ग से न जाए। चूणिकार के द्वारा मान्य इस पाठ के अर्थ की पुष्टि इसी प्रकरण से संबंधित श्रीआचाराङ्गसूत्र के इस पाठ से होती है। ['से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा, रसेसिणो बहवे पाणा घासेसणाए संथडे संणिततिए पेहाए, तं जहा कुक्कुडजातियं, वा सूयरजातियं वा, अग्गपिडंसि वा वायसा संथडा संणिवतिया पेहाए, सति परक्कमे संजया णो उज्जुयं गच्छेज्जा' - श्रीआचाराङ्गसूत्र २/१/६ (३५९) (मजैवि. मधु.)] अर्थ : वह भिक्षु या भिक्षुणी आहार के निमित्त जा रहे हों, उस समय मार्ग में यह जाने कि रसान्वेषी बहुत से प्राणी आहार के लिए झुण्ड के झुण्ड एकत्रित होकर (किसी पदार्थ पर) टूट पड़े हैं, जैसे कि - कुक्कुट जाति के जीव, शूकर जाति के जीव अथवा अग्रपिण्ड पर कौएं झुण्ड के झुण्ड टूट पड़े है; इन जीवों को मार्ग में आगे देखकर संयत साधु या साध्वी अन्य मार्ग के रहते उस सीधे मार्ग से न जाएं। श्रीआचाराङ्गसूत्र के एक अन्य सूत्रपाठ में भी यही अर्थ प्रकट होता है । जिसकी टीका में बताया हैं कि 'सत्यन्यस्मिन् संक्रमे तेन ऋजुना यथा न गच्छेत्' (अर्थात् अन्यमार्ग के होने पर उस सीधे मार्ग से न जावे । - श्रीआचाराङ्गसूत्र शीलाङ्काचार्यकृत वृत्ति) अत: उपर्युक्त प्रमाणों के आधार से यहाँ 'तो उज्णुयं न गच्छेज्जा' पाठ स्वीकारा गया है। उपसंहार : ऊपर कुछेक दृष्टान्तों के माध्यम से यह व्यक्त हुआ कि किसी भी स्थल पर चूणि, टीका, सूत्रप्रतियों में प्राप्त होने वाले विभिन्न पाठों, पाठान्तरों में से सम्यक् पाठ का निर्णय किन विभिन्न बिन्दुओं पर अवलम्बित रहता है। शुद्धपाठ का निर्णय एक दुष्कर कार्य है जो पर्याप्त समय, साधन, प्रज्ञा, शोध, ज्ञान एवं अनुभव की नितान्त अपेक्षा रखता है। कार्यारम्भ के पूर्व 'सरल सा' एवं 'थोडे समय में निष्पन्न होने जैसा' प्रतीत होने वाला यह कार्य कार्यारम्भ के बाद एक के बाद एक गुत्थियों को सुलझाने हेतु विस्तार पाता गया । मात्र अद्यावधि प्रकाशित आगमों [यथा - आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (युवाचार्य श्रीमधुकरमुनिजी म.सा.), तेरहपन्थियों द्वारा लाडन से प्रकाशित. घासीलालजी म.सा. द्वारा सम्पादित, विभिन्न स्वाध्यायमाला इत्यादि] के पाठों को परस्पर मिलाकर जहाँ अन्तर आता, वहाँ सही का निर्णय होकर शीघ्र ही कार्य सम्पूर्ण हो जाता, ऐसा नहीं था । चूणियों, टीकाओं, उनकी हस्तलिखित प्रतियों, हस्तलिखित प्राचीन सूत्रप्रतियों के बिना तथा अनेक विषयों का सम्यक् विचार किए बिना यह कार्य सम्यक्तया निष्पादित होना कठिन है यह समय एवं अनुभव के साथ स्पष्टतर होता गया। अनेक बार किसी एक छोटे से पाठ का निर्णय करने हेतु कितने ही व्याख्याग्रन्थों, कोशों, व्याकरणग्रन्थों, प्राचीन प्रतियों, अन्य आगमों, अन्य ग्रन्थों आदि को टटोलने में घण्टों निकल जाते तब कहीं जाकर ऐसे साधक-बाधक प्रमाण उपलब्ध होते, जिनसे निष्कर्ष प्राप्त हो सके एवं चित्त संतुष्ट हो सके। जब तक चित्त समाहित एवं स्थिर नहीं हो जाता कि यही शुद्ध होना चाहिए, तब तक संतुष्टि प्रकट नहीं होती थी एवं कार्यप्रवाह आगे गतिशील नहीं हो पाता था। यद्यपि हमारे पास अपेक्षित समय, साधन, प्रज्ञा, शान एवं तद्विषयक अनुभव की अल्पता है तथापि जैसा क्षयोपशम है, वैसा कुछ कार्य बन पाया है। जैसे-जैसे अनुभवप्रकाश वृद्धिगत होता गया, पूर्वकृत निर्णयों पर पुनः पुनः विचार भी होता गया, अत: समय को सीमा के अतिक्रमण से रोका नहीं जा सका। आगम के सूत्रपाठ शुद्ध निर्णीत हो एवं जिनेश्वरों द्वारा उपदिष्ट वास्तविक अर्थ उन शब्दों से प्रकट हो सके, यही प्रमुख लक्ष्य था एवं है। आगमप्रभाकर मुनि श्रीपुण्यविजयजी इत्यादि द्वारा इस दिशा में किये गये कार्य का काफी साहाय्य हमें प्राप्त था। अन्यथा यह कार्य कहीं और ज्यादा दुष्कर होता, तथापि अनेक स्थलों पर परिश्रम नितान्त अपेक्षित था। मुनि श्रीपुण्यविजयजी के कुछ शब्द यहा माननीय है - "भविष्यना विद्वान् संपादकोने विनम्र भावे प्रार्थना करीओ छीओ के प्रस्तुत सम्पादनमा उपयुक्त प्रतिओ सिवायनी कोई महत्त्वनी प्रति के प्रतिओ

Loading...

Page Navigation
1 ... 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86