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जून - २०१५
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अनुसन्धान-६७
इस सम्पूर्ण शास्त्र में एकमात्र इसी स्थान पर पाठनिर्णय मात्र बाह्य प्रमाणों के आधार पर किया गया । बाह्य प्रमाण इतने अधिक सशक्त है कि श्रीदशवैकालिकसूत्र संबंधी किसी स्थल पर अनुपलब्ध पाठ का ही निर्णय आवश्यक हो गया । यहाँ भिक्षा हेतु गए हुए भिक्षु द्वारा द्वारादि खोलने सम्बन्धी प्रसङ्ग है एवं द्वार खोलने के अर्थ में 'अवपंगुर' धातु का प्रयोग बताया है। दोनों चूणियों में यहाँ 'अवंगर' धात का पाठ है, किन्तु ये दोनों धातुएँ प्राकृत, अर्धमागधी आदि भाषाओं में नहीं होती। श्रीआचारागसत्र में इसी प्रकार के प्रकरण में 'अवंगुण' धातु का प्रयोग है -
_ [ से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावतिकुलस्स दुवारवाह... पडिपिहितं पेहाए... णो अवंगुणत्ता'
- श्रीआचाराङ्गसूत्र २/१/६/३५६ (मजैवि. मधु.)] श्रीआचाराङ्गसूत्रगत इस प्रकरण के अतिरिक्त भी आगमों में अनेक स्थानों पर द्वार खोलने के अर्थ में 'अवंगुण' धातु का प्रयोग आगमकारों ने किया है । यथा -
['सागरए दारए... उद्वेत्ता... वासघरदुवारं अवंगुणेइ अवंगुणेत्ता मारामुक्के विव काए' - श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्ग १/१६/६५ (ते.), १/१६/५३ (मधु.)]
[से भिक्खू वा भिक्खूणी वा उच्चारपासवणेण उब्बाहिज्जमाणे रातो वा वियाले वा गाहावतिकुलस्स दुवारबाहं अवंगुणेज्जा' ।
- श्रीआचाराङ्गसूत्र २/२/३०/४३० (मजैवि. मधु.)] ["हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणस्स दुवारवयणाई अवंगुणति'
- श्रीभगवतीसूत्र १५/११० (मजैवि. मधु.)] उपर्युक्त आगमिक उद्धरणों के साथ ही व्याख्याग्रंथों एवं प्राकृतसाहित्य में भी 'अवंगुण' धातु का द्वार खोलने या खोलने के अर्थ में प्रयोग हुआ है। ['वलवाएँ अवंगुणणं, कज्जस्स य छेदणं भणियं' ।
- बृहत्कल्पभाष्य गाथा २२८३] ["सुंदरि! दुवारमवंगुणाहि' - जुगाइजिणंदचरियं पृष्ठ ९४ पंक्ति १०]
विशेष रूप से यह ध्यातव्य है कि कहीं भी अवंगुरे अथवा अपंगुरे का प्रयोग न सिर्फ द्वार खोलने के अर्थ में अपितु किसी भी अर्थ में आगमों
या प्राकृत साहित्य में हुआ है, इसका कोई प्रस्तुत सूत्रेतर उल्लेख ज्ञात नहीं है। देशज शब्दों में प्रस्तुत से भिन्न कोई भी उल्लेख उपर्युक्त शब्दों अथवा तत्संबंधी धातु के प्रयोगों का नहीं मिलता है।
प्राचीन लिपि में 'र' तथा 'णे' में हुई भ्रान्तिवश अवंगुणे को अवंगुरे पढ़ा जाने लगा हो, ऐसा निश्चितता पूर्वक मानने के उपर्युक्त पर्याप्त आधार है। अत: उपर्युक्त स्थल में 'न अवंगुणे' पाठ को ही श्रीआचाराङ्गसूत्र आदि के आधार से शुद्ध पाठ माना गया है ।
(११) अष्टम अध्ययन की पैंतालीसवीं गाथा (८/४५) 'न पक्खओ न पुरओ...' में 'न य ऊरुं समासेज्जा, चिट्ठज्जा गुरुणंतिए' पाठ प्रचलित है।
यहाँ श्रीअगस्त्यसिंह स्थविर ने णि में व्याख्या करते हुए कहा है कि - "ऊरुगमूरुगेण संघट्टेऊण एवमवि न चिट्टे'
- अगस्त्यचूणि पृष्ठ १९६ इसका तात्पर्य यह है कि ऊरु का ऊरु में संघट्ट (स्पर्श) करके, इस प्रकार भी न खड़ा रहे (न बैठे)।
यही अर्थ श्रीउत्तराध्ययनसूत्र के प्रथम अध्ययन की अठारहवीं (१/ १८) गाथा 'न पक्खओ न पुरओ...' में आगत 'न गुंजे ऊरुणा ऊरं' से अभिव्यक्त होता है कि गुरु के ऊरु से अपने ऊरु का स्पर्श न करे । श्री दशवैकालिक सूत्र की इस गाथा (८/४५) एवं श्रीउत्तराध्ययनसूत्र की इस गाथा (१/१८) के पूर्वार्ध में पूर्ण समानता है [न पक्खओ न पुरओ, नेव किच्चाण पिट्ठओ] । 'ऊरु का ऊरु से स्पर्श करके न रहे', यह अर्थ समासेज्या पाठ से अभिव्यक्त नहीं होता, बल्कि 'समासज्ज' पाठ से होता है जो पा. २ प्रति में है। पा, १ प्रति से भी 'समासज्ज' पाठ की प्रतीति होती है । मुनि श्रीपुण्यविजयजी ने भी अगस्त्यचूर्णिगत व्याख्या के आधार से चूर्णिसम्मत मूलपाठ में 'समासज्ज' पाठ को ही स्वीकार किया है। श्रीउत्तराध्ययनसूत्र की चूर्णि में भी गोपालगणिमहत्तरशिष्य ने ऊरु को उरु से संघद्रा करके बैठने का निषेध किया है। ['ऊरुगमूरुगेण संघट्टेऊण एवमवि न चिद्वैज्जा'
- श्रीउत्तराध्ययनचूर्णि, पृष्ठ ३५]