Book Title: Anusandhan 2015 08 SrNo 67
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 68
________________ जून - २०१५ १३१ १३२ अनुसन्धान-६७ तडत्था पिबंतीति कायपेज्जा ।" - वृद्धविवरण, पत्रांक २५८] उपलब्ध प्राचीनतम सूत्रप्रति पा.१ में भी 'कायपेज्ज' पाठ ही विद्यमान है। ___ 'काकपेया' - यह नदी के लिए प्राचीन काल में प्रयुक्त होने वाला विशेषण है जिसका प्रयोग उस समय किया जाता है जब नदी इतनी लबालब पानी से भरी है कि काक (कोआ) भी तट पर बैठकर आराम से पानी पी सके । यदि नदी का जलस्तर थोड़ा नीचा हो तो उसे 'पाणिपेया' नदी कहा जाता था अर्थात् इतने जलस्तर वाली नदी जिससे हाथों (पाणि) को झुकाकर अंजलि से लेकर पानी पीया जा सके । आवश्यकचूणि में आगत एक उद्धरण में भी जल से पूर्ण नदी के लिए 'काकपेया' विशेषण का प्रयोग किया गया है - ['पुण्णा नदी दीसति कायपेज्जा सव्वं पिया भंडग तुज्झ हत्थे - श्रीआवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पत्र ४६४] यही उद्धरण आवश्यक-हारिभद्रीय वृत्ति (पत्र ३५१) में भी आया हुआ है, जिसमें 'कागपेज्जा' शब्द प्रयुक्त है। पाणिनि कृत अष्टाध्यायी में 'कृत्यैरधिकार्यवचने' (२/१/३३) यह सूत्र आया है, जिस पर व्याख्या करते हुए भट्टोजिदीक्षित कृत 'सिद्धान्तकौमुदी' में कहा है - 'स्तुतिनिन्दाफलकमर्थवादवचनमधिकार्यवचनम्' । इसी प्रसङ्ग पर 'काकपेया नदी' इस प्रयोग को उन्होंने उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है। बौद्ध दर्शन के दीघनिकाय, मज्झिमनिकाय आदि अनेक ग्रन्थों में भी 'जल से पूर्ण नदी' के लिए 'काकपेया' विशेषणप्रयोग किया गया है। उपर्युक्त उल्लेख श्रीअगस्त्यसिंहचूर्णि में आए 'कायपेज्ज' पाठ की शुद्धता को प्रमाणित करते हैं। अत: उपर्युक्त स्थल पर 'तहा नईओ पुण्णाओ, कायपेज्ज त्ति नो वए' ऐसा पाठ स्वीकार किया गया है जिसका अर्थ है 'नदी को जल से पूर्ण जानकर ऐसा न कहे कि यह 'काकपेया' है। (७) छठे अध्ययन की ६९ वी गाथा (६/६९) 'सओवसंता अममा अकिंचणा...' में 'सिद्धि विमाणाई उति ताइणो' पाठ प्रचलित है। श्रीअगस्त्यणि में 'उर्वति' - पाठ के स्थान पर 'व जंति' पाठ माना है तथा स्पष्ट रूप से विकल्पार्थक 'व' की व्याख्या प्रस्तुत की है। ["अविधकम्ममलुम्मुक्का सिद्धि परिणेव्वाणं गच्छंति, विमलभूतप्राया विमाणाणि उक्कोसेण अणुत्तरादीणि । एवं सिद्धि वा विमाणाणि वा । 'वा' सद्दस्स रहस्सता पागते ।" - श्रीअगस्त्यचूर्णि, पृष्ठ १५८] व जंति' कहने से यह अर्थ प्रकट होता है कि 'सिद्धिगति में जाते हैं अथवा वैमानिक देवलोकों में जाते हैं । इस प्रकार की शैली आगमों में अन्यत्र भी अनेक स्थलों पर देखी जाती है यथा :[सिद्धे वा हवइ सासए, देवे वा अप्परए महिड्डिए' - श्रीउत्तराध्ययनसूत्र १/४८ (मजैवि., स्वा.) - श्रीदशवैकालिकसूत्र ९/४/अन्तिम गाथा (मजैवि. स्वा.)] [सव्वदुक्खप्पहीणे वा, देवे वावि महिड्डिए' - श्रीउत्तराध्ययनसूत्र ५/२५ (मजैवि., स्वा.)] [तं सद्दहाणा य जणा अणाऊ, इंदा व देवाहिव आगमिस्संति' - सूत्रकृताङ्गसूत्र ६/२९ (मजैवि., स्वा.)] ['के इत्थ देवलोएसु, केइ सिझंति नीरया' - श्रीदशवैकालिकसूत्र ३/१५ (मजैवि., स्वा.)] इत्यादि । खं. २, जे, पा. २ - इन प्रतियों में भी 'उर्वति' पाठ नहीं है तथा उपर्युक्त विकल्पात्मक अर्थ को पुष्ट करने वाले 'व' शब्द से युक्त पाठ प्राप्त होता है । अत: 'व जंति' पाठ को ही स्वीकार किया गया है। (८) छठे अध्ययन की ६६वीं गाथा (६/६६) 'विभूसावत्तियं भिक्खू ...' में 'संसारसायरे घोरे जेणं पडइ दुरुत्तरे' पाठ प्रचलित है। यहाँ दोनों चूर्णियों में 'पडइ' के स्थान पर 'भमति' पाठ है। ['णेणं भमति दुस्तरे, सागर इव सागरो, संसार एव सागरो संसारसागरो, घोरो भयाणगो, तम्मि जेण कम्मुणा सुचिरं भमति' - अगस्त्यचूणि पृष्ठ १५७]

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