Book Title: Anusandhan 2015 08 SrNo 67
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 66
________________ जून - २०१५ १२७ १२८ अनुसन्धान-६७ चूणि – 'दुविधो - लिंगतो विहारतो ओहावति । विहारओ ओहावंतस्स जाई रइवक्काए अट्ठारस ठाणाई हयरस्सिगतंकुसपोयपडागारभूताणि भणिताणि ताणि जइ तस्स गयाणि तो से वसभा सारेंति - संभरे तेसिं अच्छंति' । - श्रीनिशीथभाष्य व चूर्णि, भाष्य गाथा ४५८५, भाग ३ पृष्ठ ४५०] हारिभद्रीय वृत्ति में इस सूत्र पर व्याख्या करते हुए कहा है कि - ['हयरश्मिगजाङ्कशपोतपताकाभूतानि' – हारिभद्रीय वृत्ति, पत्रांक २७२ अ (४/१७९)] यद्यपि हारिभद्रीय टीका 'पडागा' पाठ को व्यक्त करती है तथापि उपर्युक्त चूणि आदि के प्रमाणों से 'पडागार' पद सम्यक् सिद्ध होता है। ___ इस उदाहरण से यह स्पष्ट होता है कि अन्य आगमव्याख्या के स्थल सही पाठ के निर्णय की दिशा में किस प्रकार सहकार प्रदान करते हैं। यहाँ श्रीनिशीथचूर्णि में श्रीदशवैकालिकसूत्र की 'रइवक्का' चूलिका में आगत विषय बताया है जिससे यहाँ 'हयरस्सि-गयंकुस-पोयपडागार-भूयाई' पाठ शुद्ध निर्णीत बनता है। (४) चतुर्थ अध्ययन के वायुकायअहिंसा-सम्बन्धी प्रकरण में (चौथी भिक्खुणी में)... 'पत्तेण वा पत्तभंगेण वा साहाए वा साहाभंगेण वा.....' इस प्रकार का पाठ प्रचलित है। यहाँ दोनों चूणियों, हारिभद्रीय वृत्ति, सुमतिसाधु कृत वृत्ति, अवचूरि (मुद्रित) इत्यादि के अनुसार 'पत्तभंगेण वा' पाठ नहीं है। ['पउमिणिपण्णमादी पत्तं । रुक्खडालं साहा तदेगदेसतो साहाभंगतो' - श्रीअगस्त्यचूर्णि पृष्ठ ८९] [पत्तं नाम पोमिणिपत्तादी, साहा रुक्खस्स डालं, साहाभंगओ तस्सेव एगदेसो' - वृद्धविवरण, पत्रांक १५६] [तालवृन्तेन वा पत्रेण वा शाखया वा शाखाभरुन वा... 'पत्र' पद्मिनीपत्रादि, 'शाखा' वृक्षडालम्, 'शाखाभङ्गः' तदेकदेशः" - हारिभद्रीय वृत्ति, पत्रांक १५४ अ(२/२९३)] यहाँ व्याख्याकारों ने पत्र की व्याख्या के पश्चात् शाखा की एवं फिर शाखाभंग की व्याख्या की है। उनके समक्ष यदि 'पत्रभंग' का पाठ होता तो वे पत्र की व्याख्या के पश्चात् 'पत्रभंग' की व्याख्या करके फिर शाखा की व्याख्या करते । श्रीआचाराङ्गसूत्र में भी इसी विषय से सम्बन्धित पाठ है, वहाँ भी 'पत्तभंगेण वा' पाठ नहीं है। ['से भिक्खू वा भिक्खूणी वा जाव समाणो.... तालियंटेण पत्तेण वा साहाए वा साहाभंगेण वा......' - श्रीआचाराङ्गसूत्र २/१/७/३६८ (मजैवि., मधु.)] इसी प्रकार श्रीनिशीथसूत्र में भी इसी विषय से सम्बद्ध पाठ है, वहाँ भी 'पत्तभंगेण वा' पाठ नहीं है। ['जे भिक्ख अच्चुसिणं असणं वा... तालियंटेण वा पत्तेण वा साहाए वा साहाभंगेण वा....' - श्रीनिशीथसूत्र १७/१३२ (ते.)] पा. १ तथा को. २ - इन प्रतियों के मूल लेखन में 'पत्तभंगेण वा' पाठ नहीं है, बाद में किसी के द्वारा यह पाठ जोड़ा गया है। ऐसे स्थलों पर यह विमर्शनीय है कि यदि कोई पाठ सभी सूत्रप्रतियों में प्राप्त हो किन्तु चूर्णि, टीका आदि व्याख्याग्रन्थों में अव्याख्यात हो तो पाठनिर्णय के लिए सूत्रप्रतियों को प्रधानता देनी चाहिए या व्याख्याग्रन्थों को । ऐसे प्रसङ्ग पर अनेक दृष्टियों से व्याख्याग्रन्थों को महत्त्व देना औचित्यपूर्ण लगता है। श्रीदशवैकालिकसूत्र सम्बन्धी सूत्रप्रतियों में से प्राप्त जानकारी के अनुसार 'पा. १' संज्ञक प्राचीनतम सूत्रप्रति विक्रमसंवत् १२२० (तेरहवीं शताब्दी के पूर्वाध) में लिखी गई है जबकि हारिभद्रीय टीका का काल प्रायः आठवीं शताब्दी, वृद्धविवरण का काल आठवीं सदी का माना जाता है एवं अगस्त्यसिंह स्थविर कृत चूणि का समय तीसरी या छठी शताब्दी का माना जाता है। अतः सूत्रप्रतियों की अपेक्षा व्याख्याग्रन्थों को प्रधानता देना पर्याप्त समुपयुक्त है।

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