Book Title: Anusandhan 2015 08 SrNo 67
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 64
________________ जून - २०१५ १२३ १२४ अनुसन्धान-६७ सवेग गतिरत रहे - इस भावना से सूत्रपाठनिर्णय एवं अर्थनिर्णय के इस सागरतरणवत् सुदुष्कर एवं सुविशाल कार्य में प्रवृत्ति हुई । कार्य की प्रगति के साथ सतत प्रवर्धमान अनुभव से शुद्ध सूत्रपाठों के निर्णय हेतु जिन मानक बिन्दुओं का निर्धारण किया गया एवं जिनके आधार पर कुछ कार्य हुआ एवं हो रहा है, उन्हें पहले उल्लिखित किया जा रहा है एवं तदनन्तर उन पर यथापेक्ष सोदाहरण विचारणा प्रस्तुत की जा रही है। पाठनिर्णय हेतु प्रधान मानक बिन्दु इस प्रकार है: १. सङ्गत अर्थ वाले पाठ को प्रधानता देना । २. अन्य आगमों में आए पाठों एवं अर्थ से सादृश्य रखने वाले पाठ को प्रधानता देना। प्राकृत किंवा अर्धमागधी में प्रचलित प्राचीन शब्दप्रयोगों को प्रधानता देना। ४. व्याख्याग्रन्थो में कृत व्याख्या से ध्वनित होने वाले पाठों को प्रधानता देना। ५. व्याख्याओं में भी चूर्णिद्वय में कृत व्याख्या से प्रकट होते पाठों को प्रधानता देना । ६. प्राचीन सूत्रप्रतियों में मिलने वाले पाठ को प्रधानता देना । ७. अन्यत्र उद्धत सदृश पाठ को प्रधानता देना । ८. व्याकरण संगत पाठों को प्रधानता देना । आवश्यक होने पर आयुर्वेदविज्ञान, वनस्पतिविज्ञान इत्यादि विषयक ग्रन्थों से संगत पाठ को प्रधानता देना । १०. क्वचित् छन्दःशास्त्र को महत्त्व देना । ११. समानार्थक व्यंजनयुक्त / लोपयुक्त अथवा संयुक्त व्यंजन के पूर्व इ । ए, उ । ओ इत्यादि विषयों में मुनि श्रीपुण्यविजयजी द्वारा स्वीकृत पाठ को प्रधानता देना इत्यादि । १२. पाठ के वर्तमान में अधिक प्रचलन पर विशेष ध्यान न देकर शुद्ध पाठ को प्रधानता देना इत्यादि. यहाँ सामान्य रूप से मानक बिन्दुओं का वर्णन किया है। तत्वत: शुद्ध पाठ के लक्ष्यपूर्वक यथास्थान किसी बिन्दु को प्रधानता एवं किसी बिन्दु को गौणता देने का प्रसंग बनता है। अधिकतर अनेक बिन्दुओं का सम्यक् सुयोग ही पाठनिर्णायक बनता है। अब उपर्युक्त बिन्दुओं का श्रीदशवैकालिकसूत्र के सन्दर्भ में सोदाहरण विचार अवसरप्राप्त है। (१) पञ्चम अध्ययन के प्रथम उद्देशक की १२वीं गाथा (५/१/७२) 'विक्कायमाणं पसढं....' में 'रएण परिफासियं' पाठ प्रचलित है। हारिभद्रीय टीका में 'परिस्पृष्टं' इस प्रकार व्याख्या की गई है। टीकागत 'परिस्पृष्ट' को 'परिफासिय' का संस्कृत रूप मानकर शनैः शनैः 'परिफासियं' रूप प्रचलित हो गया, ऐसा संभव है। दोनों चूर्णिकारों ने यहाँ 'परिघासिय'(पडिघासिय) पद की व्याख्या की है। [रएण अरण्णातो वायुसमुद्धतेण सच्चित्तेण समंततो घत्थं परिघासियं - अगस्त्यचूर्णी, पृष्ठ ११८] [तत्थ वायुणा उद्धरण आरण्णेण सच्चित्तेण रएण सव्वओ गुंडियं पडिघासियं भण्णइ - वृद्धविवरण, पत्र १८४] दोनों चूर्णिकारों ने 'परिघासियं'(पडिघासियं) पाठ माना है । श्रीआचाराङ्गसूत्र में भी इसी अर्थ में यानी (रज से) 'भरे हुए' के अर्थ में 'परिघासिय' पाठ है - [सीओदएण वा ओसित्तं रयसा वा परिघासियं - श्रीआचारागसूत्र २/१/१/३२४ (मजैवि. मधु.)] [रयसा वा परिघासितपुव्वे भवति - श्रीआचाराङ्गसूत्र २/१/२/३४२ (मजैवि., मधु.)] यहाँ श्रीआचाराङ्गसूत्र में इस सन्दर्भ में कोई पाठान्तर भी प्राप्त नहीं है। साथ ही पा. १ (प्राचीनतम प्रति), पा. २, ला., को. २ - इन सूत्रप्रतियों में भी 'परिघासियं' पाठ ही है। उपर्युक्त प्रबल आधारों से यह स्पष्ट हो गया कि मूलत: 'परिघासियं' पाठ ही रहा है, 'परिफासियं' नहीं । अत: 'रएण परिघासियं' पाठ को ही स्वीकार किया गया है।

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