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जून २०१५
हो उनसे तुलना करके पाठनिर्णय करना ।
पूर्व के संशोधकों द्वारा की गई अशुद्धियों का विवेक ।
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६. लिपिकारों द्वारा की गई अशुद्धियों का विवेक ।
मुनि श्रीपुण्यविजयजी की शैली के अनुसार मुनि श्रीजम्बूविजयजी आदि ने भी आगमसम्पादनकार्य किया है ।
मुनिश्री की सम्पादनपद्धति के इस संक्षिप्त सार को यहाँ प्रस्तुत 'करने के दो प्रमुख प्रयोजन हैं- प्रथम तो यह है कि हमने भी मुख्यतः इसी पद्धति का लक्ष्य रखा है एवं दूसरा यह कि अनेक स्थलों पर हमने मुनिश्री के पाठ को यथावत् स्वीकारा है।
मुनि श्रीपुण्यविजयजी द्वारा स्वीकृत पाठों को यथावत् स्वीकार न करने के कारण
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इतना होने पर भी मुनि श्रीपुण्यविजयजी के पाठ को सम्पूर्णतः स्वीकार नहीं करने के भी कुछ विशिष्ट कारण हैं जिनका यहाँ उल्लेख करना आवश्यक है
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(१) जहाँ-जहाँ चूर्णिसम्मत पाठ एवं वृत्तिसम्मत पाठ में भिन्नता है, वहाँवहाँ हमने अधिकांशत: चूर्णिसम्मत पाठ को महत्त्व दिया है, जबकि मुनि श्रीपुण्यविजयजी की शैली अधिकांशतः वृत्तिसम्मत पाठ को प्राधान्य देने की रही है । इसका मुख्य कारण यह है कि चूर्णियों का रचनाकाल वृत्तियों के रचनाकाल की अपेक्षा प्राचीन है।
व्याख्याग्रन्थों का रचनाकाल
व्याख्याग्रन्थ
श्री अगस्त्यसिंह स्थविर कृत चूर्णि
अज्ञातकर्तृक चूर्णि (वृद्धविवरण) श्रीहरिभद्र सूरि कृत वृत्ति श्रीसुमतिसाधु कृत वृत्ति श्रीतिलकाचार्य कृत वृत्ति
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रचनाकाल
विक्रम की तीसरी सदी, छठ्ठी सदी ( मतान्तर)
विक्रम की आठवीं सदी (संभवत:) विक्रम की आठवीं सदी (संभवत: ) विक्रम की बारहवीं सदी विक्रम की चौदहवीं सदी
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अनुसन्धान-६७ प्राचीनता के साथ ही चूर्णिकार द्वारा की गई व्याख्याएँ अनेक स्थानों पर वृत्तिकृत व्याख्याओं की अपेक्षा आगम के हार्द को सम्यक् अभिव्यक्ति देने वाली रही है। यह आगे के पृष्ठों में आने वालें उदाहरणों के माध्यम से विशेषतः स्पष्ट हो सकेगा ।
(२) बहुत सारे स्थलों पर मुनि श्रीपुण्यविजयजी द्वारा स्वीकार नहीं किए गए पाठ के पक्ष में इतने सशक्त प्रमाण उपलब्ध हुए कि उनकी उपेक्षा करके मुनि श्रीपुण्यविजयजी के पाठ को स्वीकार करना सर्वथा अशक्य
था ।
(३) मुनि श्री पुण्यविजयजी के द्वारा इस सूत्रसम्बन्धी कार्य पूर्ण कर चुकने के पश्चात् जिन कोशों एवं अन्य ग्रन्थों का प्रकाशन हुआ, उनसे भी शुद्ध पाठ के निर्णय में पर्याप्त सहायता मिली ।
(४) संयोग से हमें विक्रम संवत् १२२० में लिखी गई श्रीदशवैकालिकसूत्र की एक महत्त्वपूर्ण प्राचीनतम ताड़पत्रीय प्रति उपलब्ध हो गई जो मुनि पुण्यविजयजी द्वारा उपयुक्त प्रतियों में नहीं थी। इसमें अनेक महत्त्वपूर्ण पाठ प्राप्त हुए ।
इत्यादि कारणों से श्रीदशवैकालिकसूत्र के पाठनिर्णय का पुरुषार्थ पुनः अपेक्षित था एवं उसका परिणाम भी यह आया कि शताधिक स्थलों पर शुद्ध पाठों का सम्यक् निर्णय फलीभूत हुआ, जिनमें से कई पाठों के निर्णय से सूत्रों में अन्तनिर्हित विशिष्ट अर्थ की स्पष्टता हो पाई है । पाठनिर्णय हेतु हमारे द्वारा स्वीकृत पाठनिर्णयपद्धति
तीर्थङ्कर देवों के द्वारा प्ररूपित शुद्ध अर्थ एवं गणधर भगवन्तों द्वारा ग्रथित शुद्ध सूत्रपद से ज्योतिर्मय 'अट्टपदोवसुद्ध' आगमों में 'हीणक्खरं, अच्चक्खरं' इत्यादि सदोष उच्चारण भी अतिचार का हेतु है तो तद्रूप वाचनाप्रवाह को प्रवाहित करने की सदोषता का तो कहना ही क्या ? इस तथ्य को आत्मसात् करते हुए, अष्टविध ज्ञानाचार में समाविष्ट व्यञ्जन, अर्थ एवं तदुभय' की शुद्धि को आत्मलक्ष्य के रूप में समक्ष रखते हुए तथा चतुर्विध संघ शुद्धसूत्रोच्चारण एवं शुद्ध अर्थावगमपूर्वक सिद्धिलक्ष्य की ओर अनवरत