Book Title: Anusandhan 2015 08 SrNo 67
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 60
________________ जून - २०१५ ११५ ११६ अनुसन्धान-६७ __यदि कोई ऐसे अशुद्धत: सम्पादित-मुद्रित चूर्णियों एवं टीकाओं के आधार से मूलपाठ का निर्णय करें तो वह कार्य कितना त्रुटिपूर्ण हो सकता है, यह सहज ही समझा जा सकता है । यहाँ प्रसंगोपात्त यह जानना अपेक्षित है कि टीकाओं एवं चणियों की जो प्राचीन हस्तलिखित प्रतियाँ प्राप्त होती है, उनमें मूल गाथाओं का लेखन नहीं किया जाता । मूल गाथा लिखे बिना ही मात्र हर गाथा की व्याख्या लिखी जाती है। व्याख्या पढ़ने से ही समझ में आता है कि इस गाथा की व्याख्या की जा रही है। कहीं कहीं तो सम्पादक ने प्राचीन हस्तलिखित टीका में जिस गाथा की व्याख्या प्राप्त नहीं है, ऐसी गाथा की व्याख्या तक को मुद्रित में स्थान दे दिया है यथा - "एतदेव स्पष्टयति - यदा च कुकुटुम्बस्य - कुत्सितकुटुम्बस्य कुतप्तिभिः - कुत्सितचिन्ताभिरात्मनः संतापकारिणीभिर्विहन्यते - विषयभोगान् प्रति विघातं नीयते तदा स मुक्तसंयमः सन् परितप्यते पश्चात् । क इव ? यथा हस्ती कुकुटुम्बबन्धनबद्धः परितप्यते" [दशवैकालिक सूत्र, हारिभद्रीय टीका पत्रांक २७५१ (४/१९४)१] यह पाठ हस्तलिखित हारिभद्रीय टीका (हहाटी २ तथा हहाटी ३) में नहीं है, लेकिन मुद्रित में इसका प्रक्षेप हो गया है। यदि कोई अशुद्ध मुद्रित के आधार पर सूत्रपाठ का निर्णय करें तो उसे इस व्याख्या को पढ़कर ऐसा आभास होगा कि यह व्याख्या इस गाथा के आधार पर की गई है जया य कुकुडुंबस्स कुत्ततीहि विहम्मई । हत्थी व बंधणे बद्धो, स पच्छा परितप्पई ॥ [दशवैकालिकसूत्र, चू. १/७ (स्वा.)] हस्तलिखित टीकाप्रति में उपर्युक्त व्याख्या ही नहीं है, जिससे स्पष्ट हो जाता है कि मूल सूत्र में यह गाथा ही नहीं है । तदनुसार सूत्र में यह गाथा है ही नहीं। ७. आगमों के लेखनकाल में प्रयुक्त संक्षिप्तीकरण पद्धति का प्रभाव : लेखनकाल में संक्षिप्तीकरण के प्रयोगों के कारण भी कभी-कभी पाठभेद बन जाया करते हैं। लेखन का कार्य आज जितना सरल व सुकर है वह आज से लगभग १५०० वर्ष पहले, जब आगमों का लेखन प्रारम्भ हुआ, उतना आसान नहीं था । ताड़ वृक्ष के पत्तों को कठिनाई से प्राप्त करना, उनमें भी कुछ पत्ते बहुत लम्बे तो कुछ छोटे, कुछ चौड़े, फिर उन्हें लेखनयोग्य बनाने की प्रक्रिया करना । मुनिवर्ग के लिए तो लेखन करना एवं पुस्तक रखना भी प्रायश्चित्त का कारण था । ऐसी अनेक परिस्थितियों के कारण आगमलेखनकाल में लिपिकारों ने 'जाव', 'वण्णओ', 'जहा पण्णवणाए' संग्रहणी गाथाओं इत्यादि अनेक तरीकों से ऐसा उपाय करना चाहा कि कम से कम लिखना पड़े । कालान्तर में आगमों का वह मूल विस्तृत स्वरूप लुप्तप्राय हो गया एवं संक्षिप्तिीकरण से युक्त आगमपाठों का प्रचलन हो गया। संक्षिप्तीकरण की इस प्रक्रिया के कारण भी अनेक पाठभेदों का निर्माण हो गया । क्योंकि कहीं किसी ने एक संक्षिप्त पाठ को विस्तार दिया, कहीं किसी ने दूसरे संक्षिप्त पाठ को । इसके अतिरिक्त क्वचित् पूर्व में असंक्षिप्त स्थलों पर भी संक्षेप कर दिया गया । इस सम्बन्ध में एक उदाहरण को लें - श्रीदशवैकालिकसूत्र के पञ्चम अध्ययन के प्रथम उद्देशक की गाथा ३२ से ३६ (५/१/३२-३६) इस प्रकार प्रचलित हैं - पुरेकम्मेण हत्थेण, दव्वीए भायणेण ण । दितियं पडियाइक्खे, ण मे कप्पइ तारिसं ॥३२॥ एवं उदउल्ले ससिणिद्धे, ससरक्खे मट्रिया ऊसे । हरियाले हिंगुलए, मणोसिला अंजणे लोणे ॥३३॥ गेरुयवण्णियसेडिय, सोरट्ठियपिट्ठकुक्कुसकए य । उक्किट्ठमसंसट्टे, संसटे चेव बोद्धव्वे ॥३४|| १. सम्पादक : सागरानंदसूरि, प्रकाशक - देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्धार फण्ड, संवत् २. प्रकाशक : कमल प्रकाशन ट्रस्ट, संवत् २०६६

Loading...

Page Navigation
1 ... 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86