Book Title: Anusandhan 2007 12 SrNo 42
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 11
________________ ४ त्रैलोक्यगुरुभ्यः । नमस्कार हो वीतरागोनई सर्वज्ञोनई देविंद्रपूजितोनई यथास्थित वस्तुना कहनारो त्रैलोक्यगुरुओनइं अरिहंतोनें भगवंतोनई । जे एवमाइक्खंति जे भगवंत इम कहें छई इह खलु अणाइजीवे अणाइजीवस्स भवे अणाइकम्मसंजोग - निवत्तिए दुक्खरूवे दुक्खफले दुक्खाणुबंधे । इहां निश्चयें अनादिजीव छै । अनादि जीवनें भव छ । ते भव अनादिकर्मसंयोगें नीपजाव्यौ छई । ए भव दुक्खरूप छई । दुख एहनुं फल छई। एथी दुक्खनो ए (अ) नुबंध छ । एअस्स णं वुच्छित्ती सुद्धधम्माओ । सुद्धधम्मसंपत्ति (त्ती ) पावकम्मविगमाओ । पावकम्मविगमो तहभवत्ताइभावाओ । ए भवनौ विच्छेद शुद्धधर्म थकी थाय । सुद्ध धर्मनी प्राप्ति पापकर्मना विनाशथी नीपर्जें । पापकर्मनो विनाश तथाभव्यत्वादिभावथी थाई । तस्स.. पुण विवागसाहणाणि तेहनां वली विपाकसाधन अनेक देखाडई छ । चउसरणगमणं, दुक्कडगरिहा, सुकडाणुसेवणं । च्यारनई सरणें जवुं दुःकृतनी गर्हा, सुकृतनुं सेववुं सारी परेँ । अउ कायव्वमिणं होउकामेणं सया सुप्पणिहाणं । ए कारणं करवुं ए आत्मरूपें थवा इंछइं तेणई सदैव सुप्रसि (णि) धान । भुज्जो भुज्जो संकिलेसे तिकालमसंकिलेसे । वारंवार संक्लेशनै विषै त्रिण काल असंक्लेश विषै । अनुसन्धान ४२ जावज्जीवं मे भगवंतो परमतिलोगनाहा अणुत्तरं (र) पुण(ण्ण)संभारा खीणरागदोसमोहा अचितचिंतामणी भवजलहिपोआ एगंतसरणा अरहंता सरणं । जिहां सूधी जीव तिहां लगें मुझनें भगवंत परमत्रिलोकनाथ, अनुत्तर छै जेहानें, क्षय गया छें राग-द्वेष-मोह जेहोनें, अचित्यचिंतामणी, पुण्यसमूह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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