Book Title: Anusandhan 2007 12 SrNo 42
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 52
________________ डिसेम्बर २००७ ४५ इस रचना को ऐतिहासिक रचना मानकर ही प्रस्तुत किया जा रहा जय जिणशासण-गयणचन्द, तिहूअण-आणन्दण । जय जण-नयणानन्द-कन्द, मदमान-निकन्दण || उवझाया सिरि रायहंस-अवयंस भणीजइ । मुणिवर श्रीय अनन्तहंस-गुण किम्पि थुणीजइ ॥१॥ दक्षिणी ढाल ए सुणिवरू ए सोहमसामि नामिइ नवनिधि पाईइ । तुम दरिसणि ए परमाणंद सम्पद सुक्ख सकाराहीइं ॥२॥ तुम्ह गुरुअडि ए गुणह पमाण मेरु समाण वखाणीइ । तुम्ह वयणला ए अमीय कलोल सोल कला ससि जाणीइ ॥३॥ तुम्ह सूरति ए सहजि सुरंग अंग अग्यार मुखिइ धारइ । एह आगम ए छंद पुराण जाणपणइं जणमण हरइ ॥४॥ तपगच्छि दीपिइ मयण जीपइ माण माण मोह निराकरइ । आदिल ऋषि आचार अनुपम सुपरि संजम मनि धरई ॥ आषाढ़ जलधर सधरधार धोरणी जिम विस्तरइ । वरिसन्ति वाणी सरस को नरवर समुभर झिरि मिरि झडि करइ ॥५॥ राजा वल्लभभाषा धन धन ईडर नयर नाह लीलापति हिन्दु पातसाह । नव कवित विनोद कला सुजांण रंजविउ यस भुपति राय भाण ॥६॥ गुरु महिमा महिमण्डलि अनन्त गुरु दिनकर अवनि... वन्त । गुरु तप जप सय संयम तेजवन्त गुरु पञ्चम कालि प्रतापवन्त ॥७॥ गुरि विनय विवेक समायरीयगुरि विज्जुवउ चअल केरिय । गणधर श्री जिनमाणिक्क-पाय तुढे तुम्ह आप्यउ ए पसाय ॥८॥ रागि णीरागता पुण तपगच्छपति सिय लखिमीसागरसूरि । हाँसी आणंद धना-वि.... अनन्तहंस उवझाय पद ठवणइ ॥ परिग युगति दाखी नव ए ॥९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88