Book Title: Anusandhan 2007 12 SrNo 42
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 60
________________ प्राकृत जैन साहित्य में उपलब्ध 'धर्म' शब्द के विशेष अर्थों की मीमांसा ___ डॉ. अनीता बोथरा प्रस्तावना : 'धर्म' शब्द के बारे में पूरी दुनिया के विचारवंतों ने जितना विचार किया है उतना शायद किसी अन्य शब्द के बारे में नहीं किया होगा । वैदिक परम्परा के विविध धर्मशास्त्रों ने प्रारम्भ में ही इस शब्द की व्युत्पत्तियाँ, अर्थ तथा लक्षण देने का प्रयास किया है । प्राकृत जनसाधारण की भाषा होने के कारण 'धम्म' शब्द के बारे में प्राकृत जैन साहित्य में उसका जिक्र किनकिन विशेष अर्थों से किया है यह इस शोधलेख का उद्देश्य है । (अ) 'धृ' धातु से निष्पन्न विभिन्न अर्थछटा : । विविध शब्दकोषों के अनुसार धर्मशब्द 'धृ' क्रिया से निष्पन्न हुआ है । षष्ठ गण के आत्मनेपद में to live, to be, to exist इस अर्थ में कर्मणिरूप में इसके प्रयोग पाये जाते हैं । 'धृ-ध्रियते' का मतलब है, 'अस्तित्व में होना या धारण किया जाना ।' दशम गण के उभयपद में धरति तथा धारयति रूप बनते हैं । इसका अर्थ है, 'धारण करना' (to hold, to bear, to carry) । संस्कृत, प्राकृत तथा पालि तीनों भाषाओं के साहित्य में धर्म शब्द के जो विविध अर्थ पाये जाते हैं उनके मूल में एक मुख्य अर्थ है, लेकिन विविध प्रयोगों के अनुसार अर्थ की छटाएँ बदलती हुई दिखाई देती हैं। (ब) 'धर्म' शब्द के रूढ (प्रचलित) अर्थ : विविध कोश ग्रन्थों में 'धर्म' शब्द के रूढ, प्रचलित अर्थ प्राकृत तथा संस्कृत साहित्य के सन्दर्भ देकर, संक्षिप्त तरीके से दिये हैं। जैसे किधर्म (religion), शील (behaviour), आचार (conduct), पुण्य (merit), नैतिक गुण (virtue), पवित्रता (piety), अहिंसा (non-violence), सत्य (truth), कर्तव्य (law, duty), रीति (observance), दान (donation), दया (kindness), धनुष्य (bow) आदि विविध अर्थों में संस्कृत तथा प्राकृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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