Book Title: Anusandhan 2007 12 SrNo 42
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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डिसेम्बर २००७
३१
सव्वुत्तमं भवं चरमं अचरमभवहेउ अविगलपरंपरत्थनिमित्तं । तत्थ काऊण निरवसेसं किच्चं विहूअरयमले सिज्जइ बुज्झइ मुच्चइ परिनिव्वाइ सव्वदुक्खाणमंतं करेइति । पवज्जापरिपालणा सुत्तं ॥४॥
ते सुभानुबंध सुक्रियाथी ने(ते) प्रवज्यावान् साधे प्रधान सत्यार्थ प्रति सम्यक्-अविपरीत परार्थसाधननई विषइं निपुणः, सर्वकाल, ते ते बीजबीजन्यासादि प्रकारे करी अणुबंधसहित पर(रा)र्थ प्रति, ए महोदयवान् परम्परार्थसाधन थकी बीज ते सम्यक्त्वबीज, बीज ते सासनप्रसंसादिक, ते बीजादि स्थापवें करी परम्परार्थ प्रति समग्र वीर्यादिसहित परम्परार्थ प्रति अवंध्य छै . सुभ चेष्टा जेहनी, सर्वाकारसंपन्नपणे करी समंतभद्र, सुप्रणिधानादिकनो हेतु क० कारण अन्यूनपणे, मोहांधकार टालवाने स्वभावें करी दीप सरिखो, रागरूप रोगनो वैद्य चिकित्सासमर्थयोगई करी, द्वेषरूप अग्निने समुद्र सरिखो तद्विध्यानशक्तिभाव थकी, संवेगसिद्धिकर होइं तत्कारणभोगें करी, अचिंत्यचिंतामणि सरिखो सत्त्वसुखकारणपणे करी, ते-अधिकृत प्रव्रज्यावान् एणें प्रकारे धर्मदांने कंरी परम्परार्थनो साधक प्रधानभव्यपणे करी, तथा करुणादिभाव थकी अनेक जन्में करी पापकर्म जे ज्ञांनावरणीयादिक तेणें मुंकातौ थकौ, प्रकर्षे वर्द्धमान संवेगादिक-सुभभाव छइं परमार्थिक, अनेक-भविक आराधनायें करी पामई सर्वोत्तम भव तीर्थंकरादिकनो छेहलो भव मोक्षनो कारण, अविकल परम्परार्थनों कारण अनुत्तर पुण्यसंभार सद्भावें करी, ते भवनें विषं महासत्त्वोनें योग्य समस्त कार्य करीनें, बद्ध्यमांन-प्राक्बद्ध-कर्मे रहित थको, विवहारथी सामान्ये अणिमादि अइंस्वर्ग(शय)नई पामइं, केवली होइं, भवोपग्राही कर्मे मुंकाय, सर्वथी कर्मनो नास करें, सर्व दुक्खनो अंत करें सदा पुनर्भवना अभाव थकी, तत्त्वतः । प्रव्रज्या-परिपालना-सूत्रं समाप्तं ॥४॥
स एवमभिसिद्धे,परमबंभे, मंगलालए, जम्मजरामरणरहिए, पहीणासुहे, अणुबंधसत्तिवज्जिए, संपत्तनिअसरूवे, अकिरिए, सहाव संठिए, अणंतनाणे, अणंतदंसणे । से न सद्दे, न रूवे, न गंधे, न रसे, न फासे, अरूवी सत्ता, अणित्थंथसंठाणा, अनंतविरिआ, कयकिच्चा, सव्वाबाहविवज्जिआ, सव्वहा निरविक्खा, थिमिआ, पसंता । असंजोगिए
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