Book Title: Anusandhan 2007 12 SrNo 42
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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अनुसन्धान ४२
परनें संतापनी अणकरनारी, विचक्षणादिभावें अनुबंधे करी अत्यंत सुंदरभली, उक्त लक्षण भोगक्रिया थकी अन्य भोगक्रिया संपूर्णं नथी, स्या माटें ? संक्लेशादिकथी, उभय लोकनी अपेक्षायें भोगक्रिया स्वरूप खंडवे करी, इति परमार्थः ।
. एअं नाणंति वुच्चइ । एयंमि सुहयोगसिद्धी उचिय पडिवत्तिपहाणा । इत्थ भावो पवत्तगो । पायं विग्यो न विज्जई निरनु(णु)बंधा सुहकम्मभावेणं । अक्खित्ता ओ इमे जोगा भावाराहणाओ तहा, तओ सम्मं पवत्तए, निप्फायइ अणाउले । एवं किरिआ सुकिरिआ एगंतनिक्कलंका निक्कलं[क]त्थसाहिआ, तहा सुहा सुहाणुबंधा उत्तरुत्तरजोगसिद्धि( द्धी)ए।
ए ग्यांन एहवं दृष्ट वस्तु तत्त्व निरूपक कहियें, ए ग्यांन छतें सुभ व्यापारनी निष्पति होइं, संज्ञान आलोचनें करी ते ते अनुबंधना देखवाथी योग्य प्रतिपत्तियें करी प्रधान, प्रस्तुत प्रवत्तिनें विषं भाव ते सदंत:करण-लक्ष प्रवर्तक छे, मोहे नही, प्रायें अधिकृत प्रवत्तिने विष भला उपाय जोग थकी विघ्न न होई असुभकर्मभावें, निरनुबंध सुभकर्मने सानुबंध सम्यक् प्रव्रज्या भोग थकी प्रवर्ति होइं, आक्षिप्त क० अंगिकार कर्या ए जोग क. भली प्रवज्याना व्यापार, भाव आराधना थकी जन्मांतर तद(द्)बहुमानादि प्रकारे करी, ते प्रव्रा व्यापार थकी सम्यक् वर्ते नियम, निष्पादिकपणे करी अनाकुल थको इष्टनिष्पादन करें, ए उक्त प्रकारे क्रिया ते सुक्रिया होइं, सम्यक् ज्ञान थकें उचित-प्रारिंभि, एकांतई कलंकरहित निरतिचारपणे करी, निकलंक कार्य जे मुख्य तेहनी साधनारी, तथा सुभ अमें सुभ अनुबंध छे जेहनो एहवी, अव्यवच्छेदें करी उत्तरोत्तर जोगसिद्धियें करी ।।
तओ से साहइ परं परत्थं सम्मं तक्कुसले सया तेहि तेहि पगारेहि साणुबंधं, महोदए बीजबीजादिट्ठावणेण, कत्तिविरिआइजुत्ते, अवंझसुहचिट्टे, समंतभद्दे, सुप्पणिहाणाइहेऊ, मोहतिमिरदीवे, रागामयविज्जे दोसानलजलनिही, संवेगसिद्धिकरे हवइ अचिंतचिंतामणिकप्पे । स एवं परंपरत्थसाहए तहा करुणाइभावओ अणेगेहिं भवेहिं विमुच्चमाणे पावकम्मुणा, पवढमाणे अ सुहभावेहि अणेगभविआए आराहणाए पाउणइ
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