Book Title: Anusandhan 2007 12 SrNo 42
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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डिसेम्बर २००७
बंधा । साणुबंधं च सुहकम्मं पगिट्ठ पगिट्ठभावज्जियं नियमफलयं सुपउत्ते वि व महागए सुहफले सिआ सुहपवत्तगे सिआ परमसुहसाहगे सिआ ।
तथा आसकलीक्रियते-आक्षिपिइं समीप थयें, परिपोष्यंते-परिपोषियें भावनें उपचयें करी, निर्माप्यंते-परिसमाप्ति पमाडीयें शुभकर्मना अनुबंधकुशलकर्मना अनुबंध ए भावः । सानुबंधं च पुनः शुभकर्म आत्यंतिकानुबंधापेक्ष अनुबंधसहित शुभकर्म प्रकृष्ट क० प्रधान प्रकृष्ट भावाजितं क० शुभभावें उपायु नियमफलदं क० प्रकृष्टत्वें करीने नियमें फलनुं देणहार छै । सुप्रयुक्त इव महागदः एकांतकल्याणः सुखफलं क०सुख छै फल जेहनुं एहवो ते शुभकर्म थाय । अनुबंधई शुभy प्रवर्तक थाय परम सुखनुं साधक ते कर्म पारंपर्ये निर्वाण सुखनुं साधक छ ।
अओ अपडिबंधमेअं असुहभावनिरोहेणं सुहभावबीयंति सुप्पणिहाणं सम्मं पढिअव्वं सम्मं सोअव्वं अणुप्पेहिअव्वंति ।
यत एवं अतो क० ए कारण माटें प्रतिबंधरहित, निदानरहित, अशुभ भावना अनुबंधनें निरोधे करीनई शुभभाव, बीज इति कृत्वा, इंम चित्तमां जाणीनें, ए सूत्र सुप्रणिधान कहतां शुभप्रणिधानें सम्यक् प्रशांत(ता)त्माई पठितव्यं कहतां भणवू, सम्यक् प्रशांतात्माइं अन्वाख्यानविधि सांभलवू, अनुप्रेक्षितव्यं कहतां अनुप्रेक्षाविषये करवं परिभावनीयमित्यर्थः ।
नमो नमिअनमिआणं परमगुरुवि( वी )अरागाणं नमो सेसनमुक्कारारिहाणं । जयओ(उ) सव्वण्णुसासणं । परमसंबोहीए सुहिणो भवंतु जीवा सुहिणो भवंतु जीवा सुहिणो भवंतु जीवा ।
नमस्कार हो देवऋषिओयें नमित क० वंदित एहवाओ ,परमगुरु एहवा वीतरागोनें, नमस्कार हो शेष आचार्यादिक गुणाधिक नमस्कार योग्य महात्माओनें । कुतीर्थनें अपोहें जयवंत वर्तो सर्वज्ञोनु शासन । वरबोधिलाभरूप परम संबोधिये मिथ्यात्वदोषनें नाशें प्रांणी सुखिआ थाओ प्रांणी सुखिआ थाओ प्रांणी सुखिआ थाओ ।
इति पावपडिघायगुणबीजाहाणसुत्तं १ ॥ इति पापप्रतिघात-गुणबीजाधान नामे प्रथम सूत्र १ ॥
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