Book Title: Anusandhan 2007 12 SrNo 42
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 19
________________ १२ अनुसन्धान ४२ नरकाद्युपपातकारणपणइं, संक्लेशप्रधानपणा माटें अति तीव्र स्वरूपें अशुभनो जेथी थाय एहवऊ परम्परायें ऊग्र घातकपणें अत्यंत, तथोक्तं- "लोकः खल्वाधारः, सर्वेषां धर्मचारिणां यस्मात् । तस्माल्लोकविरुद्धं, धर्मविरुद्धं च संत्याज्यम् ॥" सेविज्ज धम्ममित्ते विहाणेणं, अंधो विवाणुकल ड्ड )ए, वाहिए विव विज्जे, दरिद्दो विव ईसरे, भीउ विव महानायगे । न इउ सुंदरमन्नंति बहुमाणजुत्ते सिआ, आणाकंखी, आणापडिच्छ्गे, आणाअविराहगे, आणानिप्फायगेत्ती(त्ति ) । सेवियई धर्ममित्रोनें सत्प्रतिपत्त्यादि विधानें, अंध जिम खातांदिभयें अनुकर्षकर्व (तृ) नई, व्याधिवंत जिम रोगभयें वैद्योनई, दरिद्र जिम स्थितिहेतु पण ईश्वरोनई, बीहवौ जिम आश्रयणीयपणें महासौच्य आतंकपणै, अत्यंत नथी ए धर्ममित्रनां सेवनथी सुंदर बीजुं इम बहुमान युक्त थाय, हृदयथी धर्ममित्र उपरें प्रेम ते बहुमान, आज्ञा वगर थयें आज्ञानो अभिलाषी, आज्ञाप्रदानकाले आज्ञानो प्रतिच्छक, आज्ञाना परिचय करतां - अभ्यासतां आज्ञानो अविराधक, तेहनें उचित विधानें आज्ञानो निष्पादक । पडिवण्णधम्मगुणारिहं च वट्टिज्जा गिह ( हि ) समुचिएसु गिहिसमायारेसु परिसुद्धाणुडाणे परिसुद्धमन (ण) किरिए परिसुद्धवाइकिरिए परिसुद्धकायकिरिए । प्रतिपन्न धर्मगुणनें योग्य पुरिषनें वली अनुवृत्ति वर्त्तीयै, गृहिनें समुचित योग्य एहवा गृहिओना समाचारोनई विषई, परिशुद्ध अनुष्टानोनें शास्त्रानुसारइं, परिशुद्ध मनः क्रियाओनई शास्त्रानुसारई, परिशुद्ध वचनक्रियाओनें शास्त्रानुसारई, परिशुद्ध कायक्रियाओनें शास्त्रानुसारई । वज्जिज्जाणेगोवघायकारगं गरिहणिज्जं बहुकिलेसं आयइविराहगं समारंभं । न चिंतिज्जा परपीडं । न भाविज्जा दीणणयां ( दीणयं ) । न गच्छिज्जा हरिसं । न सेविज्जा वितहाभिनिवेसं । उचिअमणपवत्तगे सिआ । वर्जीय अनेक उपघातनुं कारक सामान्यें गर्हवा योग्य, प्रवृत्तिकालें बहुक्लेशदायक एहवं, आयति विराधक, परलोक-परलोकपीडाकारकनें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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