Book Title: Anusandhan 2007 12 SrNo 42
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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१८
अनुसन्धान ४२
ता अलमित्थ पडिबंधेणं । करेह मे अणुग्गलं । उज्झमह एअं वुच्छि दित्तए । अहंपि तुम्हाणुमईए साहेमि एअं निव्विण्णो जम्ममरणेहिं । समिज (ज्झ )इ अ मे समीहिअं गुरुपभावेणं । एवं सेसेवि बोहिज्जा । तओ सममेएहिं सेविज्ज धम्मं । करिज्जोचिअकरणिज्जं निरासंसो उ सव्वदा । एअं परममुणिसासणं ।
क्षण एक दुर्लभ छें, सर्व बीजा जे कार्य तेहोनी उपमाथी अतीत ए क्षण छई, सिद्धिना साधनार जे धर्म तेहनुं साधकपणुं ए क्षणमां छे तेणें करी आदरवायोग्य, च पुनरर्थे, ए सिद्धि जीवोनई जे कारणें । न ए सिद्धि मानवीनें विषें प्रादुर्भावलक्षण (जन्म) नथी, वयोहांनि नथी, प्राणत्याग नथी, इष्टनो वियोग- इष्टना अभाव माटइं नथी, अनिष्टनो संप्रयोग अनिष्टना अभाव माटें नथी, बुभुक्षा नथी, उदकेच्छा नथी, बीजो कोय शीतउष्णादि दोष [ नथी] | सर्वथा स्वाधीन ए सिद्धिनें विषई आत्मानुं रहेवुं, असुभ रागाइ रहिअं क० अशुभ एहवा जे रागादिक तेहुंणे रहित ए अवस्थान छई । "शांतं - शक्तितोपि क्रोधाद्यभावेन शांतं शिवं सकलाशिवाः व (य)तः निःक्रियपणें करी अव्याबाध छ । विपरीत छें, च पुनरर्थे, संसार, ए सिद्धिथी जन्मादिरूपपणा माटें ए सिद्धिथी संसार विपरीत हैं । सर्व उपद्रवनो आलय छै । यथाह"जरामरणदौर्गत्य-, व्याधयस्तावदासतां । मन्ये जन्मापि वीरस्य, भूयो भूयस्त्रपाकरं ||" अनवस्थित छे स्वभाव जेहनओ एवो संसार छें । संसारमां निश्चयई सुखी पण असुखी पर्यायथी, सत् पण असत् पर्यायथी, स्वप्ननी परें सर्व आलमाल छई, आस्यानं (ना) अभावई करी । तत् कारण - माटें पूर्ण संसारनें विषें प्रतिबंधे करी करो मुझनें अनुग्रह प्रति उद्यमवंत । तथा ओए संसारनई विच्छेद करवानें हुं पण तुमारी अनुमति साधुं संसारविच्छेदनें । खिन्न - उदासीन छं जन्ममरणें करी । किमित्यत आह- जन्ममरणां (णा) भ्यां संसारगामिभ्यां । सिद्धि पामई च पुनः माहरु समीहित-संसारव्यवच्छेदनरूप, गुरु- अर्हदादिक हुनें प्रभावें करी । ए रीति भार्यादिक शेषनें पण बुजवीर्यैभार्यादि (दी) नि शेषाण्यपि बोधयेदौचित्योपन्यासेन । तार पछी साथें- माता पित्रादि साथें सेवीयें चारित्र - धर्म्मनई । "ततः समं एभिर्मात्रापित्रादिभिः संवेत धर्म चारित्रलक्षणं ।" करीयें उचित करणीय प्रति इहलोक परलोक संबंधि
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