Book Title: Anusandhan 2007 07 SrNo 40
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 29
________________ अनुसन्धान-४० अने कर्तृत्वसाहचर्य तपासवं उचित छे. सूक्तमाला- ५मुं 'दधत्या सुखाकर्तुं' पद्य अलङ्कार महोदधिनां २७४मा उदा० तरीके नोंधायेल छे. . - प्रत A नां निम्नलखित पद्यो प्रत B मां नथी - ११, २४, ७१, ७४, १०२, १०५, १०६, १०७, १०९, ११०, १११, ११२, ११३, ११४, ११५ = कुल १५ पद्यो नथी. प्रस्तुत कृतिनो उल्लेख श्री मो. र. देसाईनां के श्री ही.र. कापडियानां संस्कृत साहित्यना इतिहासग्रन्थोमां जोवा मळेल नथी. . प्रस्तुत सूक्तमालानां मङ्गल पद्यमा विविध भणितिभङ्गि द्वारा, श्लोकमां 'सूक्तमाला'नी रचना करवानी प्रतिज्ञा छे. ते जोतां तेनी प्रशस्ति पण होवी जोई, जे नथी, जे कृतिनी असम्पूर्णता सूचवे छे. A प्रत ने मुख्य राखीने सम्पादन कर्यु छे. B प्रतनो पाठान्तरमां उपयोग कर्यो छे, छतां योग्य लाग्या तेवा B प्रतना पाठो मूळमां अने A ना पाठो उल्लेख A पूर्वक पाठान्तरमां लीधा छे. व सूक्तमाला अपरनाम दृष्टान्तशतकम् प्रणिपत्य परं ज्योति-नानाभणितिभङ्गिभिः । श्लोकैरेव यथाशक्ति सूक्तमालां वितन्महे ॥१॥ कलाकलापसम्पन्ना जल्पन्ति समये परम् ।। घनागमविपर्यासे केकायन्ते न केकिनः ॥२॥ उपकर्ता स्वतः कश्चिदपकर्ता च कश्चन । चैत्रस्तरुषु पत्राणां कर्ता हर्ता च फाल्गुनः ॥३॥ कल्याणमूर्तेस्तेजांसि सम्पद्यन्ते विपद्यपि । किं वर्णिका सुर्वणस्य नारोहति हुताशने ॥४॥ दधत्यार्तं सुखाकर्तुं सन्तः सन्तापमात्मना । सुदुःसहं सहन्ते हि तरवस्तपनाऽऽतपम् ।।५।। गुणिनः स्वगुणैरेव सेवनीयाः किमु श्रिया ? । कथं फलधिवन्ध्योऽपि नाऽनन्दयति चन्दनः ॥६॥ नह्येके व्यसनोद्रेकेऽप्याद्रियन्ते विपर्ययम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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