Book Title: Anusandhan 2007 07 SrNo 40
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 91
________________ अनुसन्धान-४० __ अर्थात् इस श्लोक के प्रथम द्वितीय तृतीय चरण के छठ्ठा अक्षर ग्रहण करने से 'शु', 'भ', 'ति' क्रमशः चौदवाँ अक्षर ग्रहण करने से 'ल', 'क' 'क्लु', पुनः इन तीनों चरणों के प्रारम्भ के तीसरा अक्षर ग्रहण करने पर ‘प्तो', 'सौ', 'भा' और सतरवां अक्षर ग्रहण करने से 'षा', 'स्त', 'व:' अर्थात् शुभतिलकक्लृप्तोऽसौ भाषास्तवः ग्रहण किया जाता है । इस शब्दविन्यास से शुभतिलकक्लृप्त यह भाषास्तव है । इसी प्रकार शुभतिलक (आचार्य बनने पर जिनप्रभसूरि) ने गायत्री विवरण लिखा है । इसमें भी शुभतिलकोपाध्याय रचित लिखा है । अभय जैन ग्रन्थालय की प्रति में इस प्रकार उल्लेख मिलता है : चक्रे श्रीशुभतिलकोपाध्यायैः स्वमतिशिल्पकल्पान् । व्याख्यानं गायत्र्याः क्रीडामात्रोपयोगमिदम् ॥ इति श्रीजिनप्रभसूरि विरचितं गायत्रीविवरणं समाप्तं । गायत्री-विवरण प्रो. हीरालाल रसिकदास कापड़िया सम्पादित अर्थरत्नावली पुस्तक में पृष्ठ ७१ से ८२ तक में प्रकाशित हो चुका है । उसमें पुष्पिका नहीं है। परवर्ती ग्रन्थकारों ने शुभतिलकोपाध्याय प्रणीत इन दोनों कृतियों को जिनप्रभसूरि रचित ही स्वीकार किया है। यही कारण है कि मैंने भी "शासन प्रभावक आचार्य जिनप्रभ और उनका साहित्य" पुस्तक के पृष्ठ ३४ पर लिखा है कि जिनप्रभसूरि का दीक्षा नाम शुभतिलक ही था, और आचार्य बनने पर जिनप्रभसूरि बने । प्रकरण रत्नाकर भाग-२ सा. भीमसिंह माणक ने (प्रकाशन सन् १९३३) पृष्ठ नं. २६३ से २६५ निरवधिरुचिरज्ञानं प्रकाशित हुआ है । जिसकी पुष्पिका में लिखा है : इति श्रीजिनप्रभसूरिविरचितं अष्टभाषात्मकं श्रीऋषभदेवस्तवनं समाप्तम् । इसी प्रकार लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृत विद्यामन्दिर, अहमदाबाद से प्रकाशित संस्कृत-प्राकृत भाषानिबद्धानां ग्रन्थानां सूची भाग-१ (मुनिराज श्री पुण्यविजयजी संग्रह) के क्रमाङ्क १३६३ परिग्रहण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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