Book Title: Anusandhan 2007 07 SrNo 40
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 73
________________ अनुसन्धान- ४० बगैर उठाए तो उसके अचौर्य व्रत का भंग ( अदत्तादान) होता है । निष्कर्ष : साम्य- भेदात्मक निरीक्षणों के आधार से हम इस निष्कर्ष तक पहुँचते हैं कि जैन प्राकृत ग्रन्थों में प्राप्त 'उञ्छ' शब्द निश्चित ही वैदिक परम्परा से लिया गया है । उञ्छवृत्तिधारी व्यक्ति समाज के लिए बहुत ही पूजनीय और आदरास्पद रहा होगा । इसी वजह से जैनों ने साधु के बारे में भी उञ्छ शब्द का प्रयोग किया होगा । वैदिकों से उच्छ शब्द का तो ग्रहण किया लेकिन जैन परम्परा में प्राप्त साधु- आचार विषयक नियमों से वे प्रमाणिक रहे ६६ * उञ्छ शब्द मूलतः कृषि से सम्बन्धित है । बालें या भुट्टों को काटा जाता है उसे 'शिल' कहते हैं और नीचे गिरे हुए धान्यकणों को एकत्र करने को 'उञ्छ' कहते हैं। यह शब्द अर्थ का विस्तार पाते - पाते भिक्षा से जुड गया और खाने के बाद रहा हुआ शेष भोजन लेना, घर-घर से थोडा-थोडा भोजन लेना, इसका वाचक बन गया । और सामान्यतः भिक्षा, पिण्डैषणा, एषणा, गोचरी आदि का पर्यायवाची जैसा बन गया । * वैदिक तथा जैन दोनों अर्थ समानतासे ग्रहण किये हैं । बौद्ध भिक्षु वनों से कन्द-मूल, फलग्रहण करते थे तथा विकल्प से घरों से पकी हुई रसोई का भी स्वीकार करते थे । I * वैदिक परम्परा में उञ्छव्रतधारी साधु या गृहस्थ वर्तमान स्थिति में दिखाई देना कठिनप्रायः हो गया है । लेकिन साधुप्रयोग उञ्छ (भिक्षा ) ग्रहण करनेवाले साधु-साध्वियों का भारतीय समाज में होना आज भी एक आम बात है । उञ्छ शब्द के इतिहास पर दृष्टिपात करने से यह तथ्य सामने आता है कि जैन समाज में आचार की प्रथा अविच्छिन्न रखने का प्रयास यत्नपूर्वक किया जाता है । ★★ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96